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अरावली विवाद: नए फैसले पर विकास बनाम पर्यावरण की टकराहट

अरावली की परिभाषा बदलने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने विकास और पर्यावरण के बीच नई बहस खड़ी कर दी है। एक ओर इसे प्रगति का रास्ता बताया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इसे अरावली और पर्यावरण के लिए खतरा माना जा रहा है।

Aravalli dispute: Development vs environment clash over new
अरावली पर्वत - फोटो : फाइल फोटो

उत्तरभारत:  अरावली पर्वतमाला को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने विकास और पर्यावरण, दोनों के बीच नई बहस छेड़ दी है। कोर्ट ने केंद्र सरकार की सिफारिश पर अरावली की परिभाषा बदलते हुए आदेश दिया है कि केवल वही भू-आकृति ‘पहाड़ी’ मानी जाएगी, जो आसपास की जमीन से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची हो। इस फैसले के बाद अरावली के बड़े हिस्से कानूनी सुरक्षा के दायरे से बाहर हो सकते हैं। फैसले का एक पक्ष इसे विकास के लिए जरूरी मान रहा है। उनका कहना है कि अरावली सीमा लंबे समय से अस्पष्ट थी, जिससे सड़क, बिजली, उद्योग और ग्रामीण विस्तार जैसे प्रोजेक्ट रुक जाते थे। नई परिभाषा से पहाड़ी क्षेत्र स्पष्ट होंगे और जमीन की उपलब्धता से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। कुछ विशेषज्ञ इसे वैज्ञानिक श्रेणीकरण भी बता  रहे हैं।

लेकिन इस फैसले का तीखा विरोध भी हो रहा है। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसे अवैध खनन का दरवाजा खोलने वाला कदम बताया है। उनके अनुसार राजस्थान की लगभग 90% अरावली पहाड़ियां 100 मीटर से कम ऊंची हैं, ऐसे में फैसला अरावली सुरक्षा के लिए बड़ा झटका साबित होगा। उनका आरोप है कि वन संरक्षण अधिनियम अब इन क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा, जिससे खनन तेजी से बढ़ेगा और अरावली का पारिस्थितिक ढांचा टूट सकता है।

दरअसल, विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली केवल ऊंची चोटियों का समूह नहीं, बल्कि उत्तर भारत के लिए पर्यावरणीय सुरक्षा कवच है। ये दिल्ली-एनसीआर को रेगिस्तानी धूल से बचाती हैं, भूजल को recharge करती हैं और तापमान नियंत्रित रखती हैं। अरावली कमजोर पड़ी तो दिल्ली की हवा और भी जहरीली होगी, पानी का संकट बढ़ेगा और हीटवेव खतरनाक रूप ले सकती हैं। फैसला अब सिर्फ कानूनी बहस तक सीमित नहीं है। सवाल यह है कि विकास को बढ़ावा देते हुए पर्यावरणीय सुरक्षा कैसे बचाई जाएगी? अरावली का भविष्य सिर्फ राजस्थान तक सीमित मामला नहीं—यह उत्तर भारत की पर्यावरण सुरक्षा से जुड़ा बड़ा सवाल है। अब देखने वाली बात यह है कि सरकार, अदालत और समाज इस चुनौती को कैसे देखते हैं।

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