पटना: जमुई की विधायक एवं शूटिंग में गोल्ड मेडलिस्ट श्रेयसी सिंह को नीतीश कुमार की नई सरकार में खेल विभाग का जिम्मा दिया गया है। एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को बिहार के खेल विभाग का जिम्मा दिए जाने से राज्य के विभिन्न खेल संगठनों में ख़ुशी का माहौल है। मंगलवार को राजधानी पटना में बिहार ओलंपिक संघ समेत अन्य कई खेल संगठनों ने उनके सम्मान में एक अभिनंदन समारोह का आयोजन किया। समारोह को संबोधित करते हुए खेल मंत्री श्रेयसी सिंह ने अपने कई खट्टे मीठे अनुभव को साझा किया और इस दौरान वह भावुक भी हो उठी।
श्रेयसी सिंह ने कहा कि जब हम पढाई करते थे उस वक्त मेरा मन पढाई से अधिक मन खेल के मैदान में लगता था। इसके लिए मुझे डांट भी सुननी पड़ती थी। 2004 में राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़ ने रजत पदक जीता था जो कि किसी भारतीय खिलाडी ने पहली बार जीता था। दसवीं की पढाई के बाद मैं अपने पिता जी के पास गई और उनसे कहा कि मुझे भी राज्यवर्धन सिंह राठौड़ की तरह बनना है और निशानेबाजी करनी है। सबसे पहले मुझे मेरे पिताजी और दादाजी ने सबक सिखाया और कहा कि अगर निशानेबाजी करनी है तो करो, बिहार को लेकर आगे बढो लेकिन हमसे मदद की उम्मीद मत करना।
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निशानेबाजी के लिए बंदूक चाहिए थी और वह हमारे पास नहीं था तब मैंने पिताजी से मदद मांगी और उन्होंने साफ साफ शब्दों में मदद करने से मना कर दिया। फिर मैं अपने सीनियर खिलाड़ियों के पास गई और उनसे उधार में बंदूक मांगी, जिस पर लोग मेरा मजाक भी उड़ाते थे। उस वक्त मैंने संघर्ष किया और तब मैं आज इस मुकाम पर हूँ। लोगों को लगता होगा कि मैं एक ऐसे परिवार से हूँ जहां मुझे काफी सुविधाएं मिली होंगी लेकिन मैंने उधार के बंदूक से प्रैक्टिस किया और उसी से अपना पहला पदक भी जीता। लेकिन मेरे लिए अफ़सोस की बात है कि 2008 में शुरू हुआ मेरा सफर और जब मैं 2011 में स्पोंसर्स के सहयोग से बंदूक खरीदने के लायक हुई तो उस दिन को देखने के लिए मेरे पिताजी जिन्दा नहीं रहे।
श्रेयसी सिंह ने कहा कि हर खिलाड़ी के अपने संघर्ष के दिन होते हैं। मैंने अपने 18 साल के निशानेबाजी के करियर में यही सीखा कि दृढ निश्चय के साथ अपना लक्ष्य तय कर लो तो दुनिया की कोई शक्ति नहीं है जो आपको रोक ले। हमें अपनी जिन्दगी की कहानी खुद ही लिखनी है और हम इसे जिस लक्ष्य के साथ शुरू करेंगे उसी तरह से आगे बढ़ेंगे। मैंने राष्ट्रमंडल खेल में पदक जीतने का सपना देखा था और चार वर्षों के अथक मेहनत के बाद मुझे 2014 में यह मौका मिला। जब हम वहां पहुंचे तो मुझे पता चला कि हम किसी वजह से अपने एक शारीरिक परेशानी की वजह से प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकते। डॉक्टरों ने कहा कि अगर आप निशानेबाजी करना चाहते हैं तो फिर यह प्रतियोगिता छोड़ दीजिये लेकिन मैंने अपने पापा के सपने को पूरा करने के लिए सोचा कि अभी पहले बंदूक चलाया जाये।
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हमने सपना देखा ही था तो रजत का नहीं बल्कि स्वर्ण पदक का सपना देखा था। एक तरफ मेरी इंजरी थी जो मुझे बंदूक चलाने से रोक रही थी तो दूसरी तरफ सपना मुझे सोने नहीं दे रहा था। अथक परिश्रम के बाद 2018 में फिर से लंबी लड़ाई के बाद मेरा चयन हुआ तब मन में निश्चय था कि दुबारा रजत नहीं जीतना है, स्वर्ण जीतना है। वहां जब मैं खाने के लिए जा रही थी उस वक्त अचानक मेरे दोनों तरफ कदम से कदम मिला कर दो लोग चलने लगे और तब मुझे एक मजबूती मिली और मुझे विश्वास मिला कि मैं आज जो खेल में जंग लड़ने जा रही हूँ उसमें मैं अकेले नहीं हूँ बल्कि पूरा देश मेरे साथ है। उन्होंने खिलाड़ियों को संबोधित करते हुए वादा किया कि मैं पूरी ईमानदारी से सेवा कार्य में लगी रहूंगी।
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