भारत चौथी बार आईसीसी क्रिकेट वर्ल्ड कप कराने के लिए पूरी तरह से तैयार है. देश में 5 अक्टूबर से वर्ल्ड कप 2023 का बिगुल बज जाएगा. इससे पहले 2011, 1996 और 1987 में भारत ने क्रिकेट वर्ल्ड कप की मेजबानी की थी. हालांकि, वर्ल्ड कप 1987 की मेजबानी हासिल करना आसान नहीं रहा था. दरअसल, तब बीसीसीआई के पास वर्ल्ड कप आयोजन कराने के लिए जमा की जाने वाली गारंटी मनी तक नहीं थी. चूंकि बीसीसीआई एक प्राइवेट संस्था है. इसलिए तब की भारत सरकार भी इसमें कोई मदद नहीं कर सकती थी. फिर बीसीसीआई ने कैसे जुटाई भारी-भरकम गारंटी मनी और भारत में आयोजन कैसे हो पाया सफल?
भारत साल 1983 में क्रिकेट वर्ल्ड कप विजेता बना. इसके बाद भारत ने अगले वर्ल्ड कप की मेजबानी हासिल करने की कवायद तेज कर दी. काफी मशक्कत के बाद तय हुआ कि 1987 का क्रिकेट वर्ल्ड कप एशिया में होगा. लेकिन, बात पैसे पर आकर अटक गई. तब बीसीसीआई को वर्ल्ड कप आयोजन कराने के लिए 20 करोड़ रुपये की भारी-भरकम रकम का इंतजाम करना था. एक समय ऐसा भी आया, जब ये लगने लगा कि बीसीसीआई वर्ल्ड कप का आयोजन भारत में नहीं करा पाएगा. आज बेशक बीसीसीआई दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है, लेकिन तब बोर्ड की हालात इतनी मजबूत नहीं थी. ऐसे में एक औद्योगिक घराने ने बीसीसीआई की तरफ मदद का हाथ बढ़ाया.
1984 में ही विदेशी मुद्रा में जमा करनी थी गारंटी मनी
वर्ल्ड कप 1987 की मेजबानी भारतीय उपमहाद्वीप को मिलने स्पांसर ढूंढना बहुत मुश्किल हो रहा था. पाकिस्तान संयुक्त मेजबान जरूर था, लेकिन उसने पहले ही साफ कर दिया था कि पैसे का इंतजाम या स्पांसर ढूंढना अकेले भारत का काम है. बात यहीं खत्म नहीं होती कि बीसीसीआई को वर्ल्ड कप का आयोजन कराने के लिए जमा की जाने वाली गारंटी मनी का इंतजाम था. इसमें दो पेंच भी थे. पहला, वर्ल्ड कप 1987 की गारंटी मनी का दिसंबर 1984 में ही भुगतान करना था. दूसरा, गारंटी मनी का भुगतान विदेशी मुद्रा में करना था. उस समय देश में न तो आज की तरह पैसा था और न ही विदेशी करेंसी का बड़ा रिजर्व ही होता था. रणनीतिकारों ने दोनों मुश्किलों का हल निकालने के लिए विदेशी स्पांसर लाने की योजना बनाई.
हिंदुजा ग्रुप से अटकी बात, रिलायंस पर खत्म हुई खोज
बीसीसीआई को काफी कोशिशों के बाद मूलरूप से भारत के हिंदुजा बंधुओं का हिंदुजा ग्रुप वर्ल्ड कप 1987 को स्पांसर करने के लिए तैयार हो गया. ये वर्ल्ड कप ‘हिंदुजा कप’ बनने के बहुत करीब था, लेकिन आखिर में कुछ शर्तों पर आकर बात अटक गई. इसी बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की केंद्र सरकार फॉरेन करेंसी रिजर्व की हालत अच्छी ना होने के बावजूद इस शर्त पर मदद को तैयार हो गई कि पैसा बीसीसीआई को ही लाना होगा. बीसीसीआई की विदेशी मुद्रा में गारंटी मनी भुगतान की समस्या हल हो गई, लेकिन पैसा जुटाना अब भी चुनौती बना हुआ था. हालांकि, अब भारत में स्पांसर ढूंढने की कोशिश शुरू हो गई. बीसीसीआई की ये तलाश रिलायंस ग्रुप पर जाकर रुकी.
हर कदम पर रिलायंस ग्रुप ने की बीसीसीआई की मदद
रिलायंस ग्रुप के सर्वेसर्वा धीरू भाई अंबानी ने अपने बेटे अनिल अंबानी को कंपनी की तरफ से इस बारे में बातचीत और शर्तें तय करने का अधिकार दे दिया. रिलायंस ग्रुप हर संकट में बीसीसीआई के साथ चट्टान की तरह खड़ा हो गया. वर्ल्ड कप 1987 का स्पांसरशिप कॉन्ट्रैक्ट 4 करोड़ रुपये का था, जो उस समय के लिए बहुत बड़ी रकम थी. बीसीसीआई की एक मुश्किल हुई तो दूसरी चुनौती सामने आकर खड़ी हो गई. बीसीसीआई को भारत में खेले जाने वाले सभी मैच में इन-स्टेडिया एड के लिए कोई स्पांसर नहीं मिल रहा था. एक बार फिर रिलायंस ग्रुप ने मदद का हाथ बढ़ाया और बीसीसीआई को 2.6 करोड़ रुपये फिर दिए.
BCCI के लिए टीमों के ठहरने का इंतजाम भी था भारी
बीसीसीआई की मुश्किलें अभी खत्म नहीं हुई थीं. आप ये जानकर हैरान हो सकते हैं कि वर्ल्ड कप में भाग लेने के लिए आने वाली टीमों के ठहरने का भी कोई इंतजाम नहीं था. बड़े होटल टीमों को ठहराने के एवज में जो रकम मांग रहे थे, वो बीसीसीआई की जेब पर भारी पड़ रही थी. स्पांसर कॉन्ट्रैक्ट में ये खर्चा रिलायंस के हिस्से में नहीं था, लेकिन यहां भी कंपनी ने होटल चुनने की आजादी मिलने की शर्त पर बीसीसीआई की मदद की. सभी मुद्दों पर सहमति के बाद रिलायंस ने आखिर में एक ऐसी शर्त रखी दी, जिसे पूरा कर पाना बीसीसीआई के बस में नहीं था. दरअसल, रिलायंस पैसा देकर नाम चाहने वाली स्पांसर नहीं थी. ये कंपनी के लिए ब्रांड को नई पहचान देने, लोकप्रिय बनाने का मौका था.
क्या थी वो शर्त, जिसे पूरा करना BCCI के बस का नहीं था
वर्ल्ड कप 1987 से ठीक पहले भारत-पाकिस्तान प्रदर्शनी मैच का प्रस्ताव था. ये भी तय था कि इस मैच का दूरदर्शन और पीटीवी पर लाइव टेलीकास्ट किया जाएगा. स्पांसरशिप कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर से पहले रिलायंस ग्रुप ने शर्त रखी कि इस मैच के दौरान धीरू भाई अंबानी को प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ बैठाया जाएगा. इससे लोगों के बीच सीधा संदेश जाता कि रिलायंस ग्रुप के सरकार के साथ संबंध काफी बेहतर हैं. अब ये शर्त पूरी करना बीसीसीआई के हाथ में तो कतई नहीं था. फिर भी तब सरकार में मंत्री रहे और तब बीसीसीआई के कर्ताधर्ता एनकेपी साल्वे इसके लिए राजी हो गए.
वर्ल्ड कप 1987 नहीं, हुआ रिलायंस वर्ल्ड कप 1987
एनकेपी साल्वे ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से धीरू भाई अंबानी के साथ बैठकर भारत-पाकिस्तान मैच देखने की सहमति हासिल करने का जिम्मा लिया. तब देश में हर आम और खास व्यक्ति यही चाह रहा था कि कुछ भी करके भारत में हो रहा क्रिकेट वर्ल्ड कप सफलता की नई इबारतें लिखे. वर्ल्ड कप आयोजन को सफल बनाने की इसी सोच के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसके लिए राजी हो गए. प्रोटोकॉल तोड़ा गया और धीरू भाई अंबानी ने राजीव गांधी के साथ बैठकर ये मैच देखा. बता दें कि रिलायंस ग्रुप ने मौके का फायदा उठाने के लिए टूर्नामेंट का नाम भी बदलवा दिया था. बता दें कि तब वर्ल्ड कप नहीं, बल्कि रिलायंस कप खेला गया था. वर्ल्ड कप अचानक रिलायंस कप में बदल गया.
क्या है गारंटी मनी, जो वर्ल्ड कप आयोजक को चुकानी होती है
तब क्रिकेट में गारंटी मनी का सिस्टम था. इसके तहत आयोजक देश को वर्ल्ड कप खेलने आने वाली टीमों को तय रकम का भुगतान करना होता था. इंग्लैंड उस समय सदस्य देशों को गारंटी मनी में महज 3000 से 4000 पाउंड देते थे. वहीं, भारत ने मेजबानी हासिल करने के लिए वादा कर दिया कि वर्ल्ड कप के मुनाफे में से हर टीम को 20,000 पाउंड की गारंटी मनी मिलेगी. वहीं, हर टेस्ट कंट्री के लिए गारंटी मनी बढ़ाकर 75,000 पाउंड कर दी गई. हर टीम को ये भी कहा गया था कि वर्ल्ड कप में हिस्सा लेने का पूरा खर्चा भी मेजबान देश यानी भारत ही चुकाएगा.