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दम तोड़ रहे हैं बिहार के सरकारी स्कूल, क्यों ग़ायब रहते हैं छात्र, कौन कर रहा है सरकारी स्कूलों को बदहाल?

बिहार के सरकारी स्कूलों में तमाम सरकारी दावों के बावजूद छात्रों की उपस्थिति संतोषजनक नहीं दिख रही है. मौजूदा समय में बिहार में हर बच्चे को स्कूल तक लाना और उसे भेदभाव रहित शिक्षा मुहैया कराना बहुत मुश्किल दिख रहा है. ये एक ही सप्ताह के दौरान बिहार में स्कूली शिक्षा को लेकर जारी दो अलग-अलग रिपोर्टों से ज़ाहिर हो रहा है. चार अगस्त को जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) ने बिहार के अररिया और कटिहार ज़िले के करीब 11 प्रखंडों के 81 स्कूलों को लेकर किए गए अपने सर्वे पर 'बच्चे कहां हैं' नाम से रिपोर्ट जारी की है. ये रिपोर्ट भले ही दो ज़िलों की बात कर रही हो, लेकिन इसके आंकड़े बेहद निराशाजनक थे.

सर्वेक्षण के मुताबिक प्राथमिक स्कूलों में महज़ 23 प्रतिशत यानी एक चौथाई से भी कम उपस्थिति थी, जबकि उच्च प्राथमिक स्कूलों में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत ही पाया गया. हालांकि इस रिपोर्ट का सैंपल साइज़ बहुत छोटा है और रिपोर्ट में खुद इस बात का ज़िक्र है कि ‘ये सैंपल बिहार के सभी सरकारी स्कूलों का प्रतिनिधि नहीं है.’ लेकिन जानकार मानते हैं कि बिहार के सरकारी स्कूलों की कमोबेश यही हालात हैं.

एएन सिन्हा संस्थान के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, “ये रिपोर्ट सीमांचल की है तो इसका मतलब ये नहीं है कि मधुबनी में ऐसे हालात नहीं हैं. जहां सामाजिक हस्तक्षेप है वहां स्थिति थोड़ी बेहतर है. बाक़ी जगह हालात वही हैं.” हालांकि ये सर्वे अध्ययन फरवरी महीने का है. इसके बाद स्थिति में बहुत बदलाव भी हुआ है.

दरअसल जुलाई महीने में बिहार के शिक्षा विभाग ने स्कूलों के आधारभूत संरचना और पठन-पाठन को लेकर निर्देश दिए थे, जिससे स्थिति में काफ़ी बदलाव हुआ है. शिक्षा विभाग के सचिव के.के. पाठक ने एक जुलाई से छात्रों की उपस्थिति को बढ़ाने के लिए अभियान चलाने का निर्देश दिया था. इस अभियान में स्कूलों में छात्रों की मौजूदगी 50 प्रतिशत से कम होने पर प्रखंड शिक्षा अधिकारी के स्तर पर कार्रवाई करने का दिशानिर्देश दिया गया था.

इस अभियान का असर भी देखने को मिला. उन्होंने 24 जुलाई को राज्य के सभी ज़िलाधिकारियों को एक पत्र भी भेजा है. इस पत्र में कहा गया है, “50 से 75 प्रतिशत अटेंडेंस जो पहले 34 प्रतिशत स्कूलों में होती थी, वो अब बढ़कर 71 प्रतिशत स्कूलों में हो गई है.”

स्वाभाविक है कि राज्य सरकार के सुधार अभियानों का असर छात्रों की उपस्थिति पर पड़ रहा है. स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति 50 प्रतिशत से कम होने पर शिक्षा विभाग, प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी से स्पष्टीकरण मांग रहा है. लेकिन ज़मीनी स्तर पर प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी दूसरी तरह की मुश्किलों का सामना कर रहे हैं.

उदाहरण के लिए सुपौल के मरौना ब्लॉक में 130 सरकारी स्कूल हैं जिसमें 37,000 छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं. मरौना के प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी राम प्रसाद सिंह यादव कहते हैं, “हमारा इलाका देहाती क्षेत्र है. अभी रोपनी का सीजन है. कुछ बच्चे को रोपनी करने, कुछ बच्चों को खेत खाना लेकर जाना पड़ता है तो कुछ अपने छोटे भाई बहन को संभालते हैं. मां बाप अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते. अब हम लोग क्या कर सकते हैं?”

इसके अलावा इस रिपोर्ट ने एक बार फिर मिड डे मील में अंडा को शामिल करने के मुद्दे की ओर ध्यान दिलाया है. इस रिपोर्ट में शामिल तकरीबन 20 प्रतिशत स्कूलों ने कहा कि मिड डे मील के लिए ‘अपर्याप्त धन’ है. राज्य में कक्षा एक से आठ तक सरकारी स्कूलों में मिड डे मील का प्रावधान है. कक्षा एक से पांच तक प्रति छात्र 5.45 और छह से आठ तक के प्रति छात्र के लिए 8.17 रुपये प्रतिदिन ख़र्च का प्रावधान है. इसके तहत छात्रों को सप्ताह में एक बार अंडा भी दिया जाना है. लेकिन रिपोर्ट में बताया गया है कि सामाजिक दबाव के चलते कुछ स्कूलों में अंडा उपलब्ध नहीं कराया जाता है, क्योंकि इसे गैर शाकाहारी और अशुद्ध माना जाता है.

अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज कहते हैं कि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा की तरह ही बिहार में रोज़ाना अंडा छात्रों को दिया जाना चाहिए. इससे बच्चों की उपस्थिति के साथ साथ उनके स्वास्थ्य और लर्निंग पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा.

बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में संगीता गिरी मिड डे मील की सहायक कार्यक्रम समन्वयक हैं. रोज़ाना मिड डे मील में अंडा देने की मांग पर कहती हैं कि केन्द्र से राज्य ने अंडा/ मौसमी फल सप्ताह में तीन दिन देने के लिए संभावित व्यय की राशि की मांग अगस्त 2022 में की थी लेकिन अभी तक उस पर किसी तरह की सहमति नहीं बनी है.

इस रिपोर्ट ने बिहार के स्कूलों में शिक्षकों की कमी को भी रेखांकित किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 35 प्रतिशत प्राथमिक स्कूल और 5 प्रतिशत उच्च प्राथमिक स्कूल ही राइट टू एजुकेशन (आरटीई) के छात्र शिक्षक अनुपात (30 छात्रों पर एक शिक्षक) के मानदंड को पूरा करते हैं.

प्राथमिक स्कूलों में केवल 67 फ़ीसदी शिक्षक

जेजेएसएस के आशीष रंजन बताते हैं, “सर्वे में हमने पाया कि प्राथमिक स्कूलों में औसतन 147 छात्र नामांकित थे जबकि उच्च प्राथमिक (कक्षा 1 से 8) में 488 छात्र. प्राथमिक स्कूलों में औसतन 4 क्लासरूम और 4 शिक्षकों की नियुक्ति है."

"वहीं उच्च प्राथमिक में औसतन 9 क्लासरूम और 8 नियुक्त शिक्षक हैं. प्राथमिक स्तर में 43 छात्रों पर एक शिक्षक और उच्च प्राथमिक में 57 छात्रों पर एक शिक्षक तैनात हैं.”

बिहार में तकरीबन चार लाख प्राथमिक शिक्षक हैं. हाल ही में सरकार ने 1 लाख 70 हजार शिक्षकों की वैकेंसी निकाली है. शिक्षकों की कमी झेलते बिहार में सबसे ज्यादा संकट ग्याहरवीं और बाहरवीं के फिजिक्स, अंग्रेजी, कैमिस्ट्री, मैथमैटिक्स के टीचर्स की है.

जैसा कि सुपौल के किशनपुर अंचल के एक शिक्षक बताते हैं कि हमारा स्कूल इंटरमीडिएट तक का है लेकिन ग्याहरवीं और बारहवीं का एक भी शिक्षक नहीं है. अभी 800 छात्र हैं और 6 क्लासरूम हैं. हालत ये है कि सभी छात्र अगर उपस्थित हो जाएं तो स्कूल में खड़े रहने की जगह नहीं होगी. शिक्षा विभाग जो कर रहा है, वो अच्छा है. लेकिन अगर सच में बदलाव लाना है तो ये सब भी ठीक करना होगा.

हालांकि इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि तैनात शिक्षकों में भी अलग-अलग वजहों से अनुपस्थित रहने का चलन बना हुआ है. सर्वे के दौरान यह देखने को मिला कि करीब 58 प्रतिशत शिक्षक ही ड्यूटी पर तैनात हैं, हालांकि प्राथमिक स्कूलों में यह संख्या 63 फ़ीसदी तक दिखी. लेकिन यहां ये भी जानना होगा कि बिहार के प्राथमिक विद्यालयों में अभी केवल 67 फ़ीसदी पदों पर शिक्षक तैनात हैं, यानी 67 फ़ीसदी मौजूद शिक्षकों में 63 फ़ीसदी शिक्षक क्लास आ रहे हैं.

आंकड़ों के हिसाब से समझें तो केवल 43 प्रतिशत शिक्षक स्कूल में अपनी ड्यूटी पर मौजूद हैं. उच्च प्राथमिक स्कूलों में यह आंकड़ा गिरकर महज 23 प्रतिशत तक रह रहा है. ज़ाहिर है कि एक तरफ़ बच्चों की संख्या तो दूसरी तरफ़ शिक्षकों के खाली पद, दोनों मिलकर बिहार के सरकारी स्कूली शिक्षा की बदहाल तस्वीर बनाते हैं.

इतना ही नहीं शिक्षकों की गुणवत्ता का मुद्दा भी है. हमें ये समझना होगा कि शिक्षा रोज़गार नहीं है. उन्हीं लोगों को टीचर बनना चाहिए जिनको टीचिंग से अंदरूनी लगाव हो. हालांकि, जो तस्वीर सामने आ रही है वो बहुत डार्क है. लेकिन ऐसा नहीं है कि सुधार नहीं हुआ है. अगर आप बीस साल पहले की रिपोर्ट देखें तो उस वक्त बिहार के स्कूलों में मुश्किल से दो कमरे थे. तो इंफ्रास्ट्रक्टर देखें, मिड डे मील की स्थिति या बच्चों का नामंकन देखें तो सुधार हुआ है. सरकारी स्कूल अभी भी रिवाइव हो सकते है.

हालांकि मौजूदा समय में बिहार की स्कूली शिक्षा आईसीयू में है. इस रिपोर्ट में डायरेक्ट बैनिफ़िट ट्रांसफ़र की स्कीम पर सवाल उठाए गए हैं, क्योंकि बच्चों की किताब-कॉपी और ड्रेस का पैसा अभिभावक कहीं और ख़र्च कर दे रहे हैं.

जन जागरण शक्ति संगठन की रिपोर्ट से पहले 27 जुलाई को बिहार दलित विकास मंच ने ‘राइट्स ऑफ दलित चिल्ड्रेन इन बिहार’ जारी किया था. इसमें 10 ज़िलों की 20 पंचायतों के 40 गांव के 400 दलित परिवारों के बच्चों की स्थिति का सर्वे किया गया था. इस रिपोर्ट में दलितों की 16 जातियों को शामिल किया गया है. इन दलित परिवारों के 26 प्रतिशत बच्चे स्कूल से ड्रॉप आउट हैं जिसमें सबसे ज़्यादा मुसहर और पासी समुदाय के हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक इन ड्रॉप आउट छात्रों में से 39 प्रतिशत का स्कूल जाने का मन नहीं करता, 8 प्रतिशत शादी या गर्भावस्था के चलते, 6 प्रतिशत छोटे भाई बहन की देखभाल के लिए, 9 प्रतिशत स्कूल के रास्ते में यौन हिंसा के चलते, 11 प्रतिशत शिक्षकों के भेदभावपूर्ण रवैये के चलते स्कूल नहीं जाते.

आपको बता दें कि मिड डे मील का मक़सद ये भी है कि सभी बच्चे साथ मिलकर मिड डे मील खाएं ताकि उनके बीच भेदभाव मिटे, ड्रॉप आउट घटे और स्कूल में नामांकन बढ़े. सर्वे के मुताबिक 97 प्रतिशत दलित बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं. यानी यदि दलितों की स्थिति वास्तव में सुधारनी है तो स्कूलों की स्थिति सुधारनी होगी.

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