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बिहार में हो रही मीठे बांस की खेती, चमकने वाली है राज्य के किसानों की किस्मत

बिहार को राजनीति का गढ़ कहा जाता है. बिहार ने देश की राजनीति को कई बार नई दिशा दी है. बिहार कभी शिक्षा का गढ़ भी रहा है. खानपान से लेकर कला के लिए भी बिहार अलग पहचान रखता है. इसके अलावा बिहार के लोग अपनी मीठी बोली-भाषा के लिए पूरे देश में जाने जाते हैं. लेकिन बिहार अब अपने मीठे बांस के लिए भी जाना जाएगा.

दरअसल, बिहार में देश का पहला मीठा बांस तैयार हो रहा है. ये बांस जहां किसानों की आमदनी बढ़ाएगा, वहीं कई बीमारी में औषधि का काम भी करेगा. तिलकामांझी भागलपुर यूनिवर्सिटी में देश का पहला बंबू टिशू कल्चर किया जा रहा है. यहां मीठे बांस के पौधों को तैयार किया जा रहा है. इस प्रयोग से एक बार में 2 लाख बांस के पौधे तैयार होंगे.

बांस की आपने बहुत सारी कलाकृतियां देखी होंगी. खासकर चीन में किसानों की मजबूत आर्थिक स्थिति में बांस का बड़ा योगदान है. कुछ ऐसा ही होने जा रहा है बिहार में. जहां अब किसान बांस की खेती से ज्यादा कमाई कर सकेंगे. तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय अंतर्गत टीएनबी कॉलेज में देश का पहला बम्बू टिशू कल्चर लैब है. यहां मीठे बांस के पौधे बड़े पैमाने पर तैयार किए जा रहे हैं. इस मीठे बांस के पौधे को पूर्ण रूपेण व्यावसायिक रूप में लाने के लिए इसे तैयार किया जा रहा है. वन विभाग भी इसमें अहम भूमिका निभा रहा है. यहां के बम्बु टिशू कल्चर लैब से तैयार मीठे बांस के पौधे जमुई, छपरा, सिवान, पूर्णिया सहित कई जगहों पर भेजे गए हैं.

विभाग की ओर से मिली जानकारी के मुताबिक पहले ये आपको केवल जंगल झाड़ियां या अड्डे पर देखने को मिलते थे. लेकिन अब इसकी खेती की तरफ किसान आकर्षित हो रहे हैं. वहीं भागलपुर में देश का पहला टिशू कल्चर लैब है जो बड़े पैमाने पर बांस के कई किस्म के पौधे को तैयार कर रहा है. उसमें से खास है मीठा बांस. तिलकामांझी विश्वविद्यालय अंतर्गत ये लैब बिहार सरकार के वन विभाग की ओर से प्रायोजित है. पहले बांस के टिशू को शोध कर तैयार किया जाता है. उसके बाद तीन फीट के हो जाने के बाद उसे वन विभाग को सौंप दिया जाता है. इसे लेकर विभाग के लोग अन्य जिलों में जाते हैं.

लैब में तैयार टिशू

बम्बू मैन ऑफ बिहार और टिशू कल्चर लैब के नाम से मशहूर हेड प्रोफेसर डॉ. अजय चौधरी ने बताया कि भारत का यह पहला लैब है. इस लैब में वृहद पैमाने पर बांस का उत्पादन किया जा रहा है. एक बार में लगभग 2 लाख पौधों को तैयार किया जाता है. वहीं इसकी खेती करने पर किसानों को दोगुना मुनाफा भी होता है. एक बार की लागत से करीब 100 साल से भी ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है. बंजर जमीन और वैसी जमीन जहां पर अन्य खेती होने की संभावना नहीं है. वैसी जमीन पर इसकी खेती की जा सकती है. सनातन धर्म में बांस की महता भी ज्यादा बताई गई है.

शोध करने वाले ने दी जानकारी

20 वर्षों से पेड़ पौधों पर शोध कर रहे पीटीसीएल के परियोजना निदेशक प्रोफेसर डॉ. अजय चौधरी ने बताया कि राष्ट्रीय बांस मिशन और राज्य बांस मिशन के अंतर्गत वन विभाग मीठे बांस के पौधे बड़े पैमाने पर लगवाएगा. किसानों को वन विभाग से 10 रुपये में ये पौधा मिलेगा. 3 वर्ष बाद इन पौधे की फिर जांच की जाएगी. यदि किसानों की ओर से लगाए गए 50% से अधिक पौधे बचे रहते हैं. उसके बाद किसानों को प्रति पौधा 60 रुपया अनुदान के तौर पर दिया जाएगा. बांस के पौधे की कीमत भी वापस कर दी जाएगी. पर्यावरण की दृष्टिकोण से भी बांस काफी अच्छा होता है. इसका पौधा सबसे अधिक तेजी से बढ़ता है जिस वजह से यह ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड अब्जॉर्ब करता है. ऑक्सीजन की मात्रा अधिक देता है.

बदल सकती है बिहार की अर्थव्यवस्था

प्रोफेसर डॉ. अजय चौधरी ने आगे यह भी बताया कि बांस से एथेनॉल भी अधिक मात्रा में तैयार होता है. इतना ही नहीं अगर पूरे बिहार में मीठे बांस की खेती होती है तो बिहार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बदल जाएगी. उन्होंने बताया कि मीठे बांस से अचार, चिप्स, कटलेट के अलावा कैंसर की दवाइयां भी तैयार की जा रही हैं. खासकर बांस की कई प्रजातियों का प्रयोग चीन, ताइवान, सिंगापुर जैसे देशों में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. इसके साथ ही बांस को प्लास्टिक का सबसे बड़ा विकल्प माना जा रहा है.

पर्यावरण को लाभ

बांस हमारे पर्यावरण को लाभ पहुंचता है. वहीं इसकी खेती से बिहार में उद्योग को भी बढ़ावा मिल सकता है. बांस का उपयोग पेपर इंडस्ट्री, फर्नीचर और इससे दैनिक जीवन में इस्तेमाल करने वाले समान को भी बनाया जा सकता है. वहीं बांस से एथेनॉल भी अधिक मात्रा में तैयार होता है. बम्बू मैन ने बताया कि यदि पूरे बिहार में मीठे बांस की खेती होती है, तो यहां के किसानों की किस्मत बदल जाएगी. मीठे बांस से कैंसर की दवाइयां भी तैयार की जा रही है. खासकर बांस की कई प्रजातियों का प्रयोग चीन, ताइवान, सिंगापुर जैसे देशों में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. बांस को प्लास्टिक का सबसे बड़ा विकल्प माना जा रहा है. इसकी खेती करने वाले किसानों को कभी खेती जुआ नहीं लगेगी. उन्हें अपनी मेहनत का बकायदा फायदा मिलेगा.

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