बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2024 के चुनाव से पहले राज्य में पिछड़ा वर्ग का आरक्षण बढ़ाने के फैसले को मंजूरी दे दी है. नीतीश कैबिनेट ने जाति आधारित आरक्षण 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी कर दिया है. इसके अलावा, 10 प्रतिशत आरक्षण का लाभ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को मिलेगा. बिहार में अब आरक्षण लिमिट 75 फीसदी होने जा रही है. नीतीश सरकार 9 नवंबर को विधानसभा में आरक्षण बढ़ाए जाने का प्रस्ताव लेकर आई. रिजर्वेशन का लाभ सरकारी नौकरी और शिक्षा में मिलेगा. लेकिन सवाल उठ रहा है कि क्या नीतीश का यह दांव प्रैक्टिकल है? क्योंकि इससे पहले अन्य राज्य भी इसी तरह की पहल कर चुके हैं.
बिहार की नीतीश सरकार आज विधानसभा में आरक्षण बढ़ाने का प्रस्ताव लेकर आई. इस बिल के मुताबिक, बिहार में अब पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को 65% आरक्षण मिलने का प्रावधान है. अभी बिहार में इन वर्गों को 50% आरक्षण मिलता है. जातिगत जनगणना की रिपोर्ट पेश करने के बाद सीएम नीतीश कुमार ने राज्य में 65% आरक्षण करने का ऐलान किया था.
बिहार में अभी आरक्षण की सीमा 50% है. EWS को 10% आरक्षण इससे अलग मिलता था. लेकिन, अगर नीतीश सरकार का प्रस्ताव पास हो जाता है तो आरक्षण की 50% की सीमा टूट जाएगी. बिहार में कुल 65 फीसदी आरक्षण मिलने लगेगा. इसके अलावा EWS का 10% आरक्षण अलग रहेगा.
किसे कितना मिलेगा आरक्षण?
बिहार कैबिनेट ने मंगलवार को जाति आधारित आरक्षण को 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है. अब तक पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग को 30 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा था, लेकिन नई मंजूरी मिलने पर 43 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलेगा. इसी तरह, पहले अनुसूचित जाति वर्ग को 16 प्रतिशत आरक्षण था, अब 20 प्रतिशत मिलेगा. अनुसूचित जनजाति वर्ग को एक प्रतिशत आरक्षण था, अब दो प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलेगा. इसके अलावा, केंद्र सरकार द्वारा दिया गया आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य गरीब वर्ग (EWS) का 10 फीसदी आरक्षण मिलाकर इसको 75 फीसदी करने का प्रस्ताव है.
किसका कितना कोटा बढा़ने का प्रस्ताव?
बिहार में मौजूदा समय में OBC और EBC को 30% आरक्षण मिलता है. इसमें 18% OBC और 12% EBC का कोटा है. यानी, अब नीतीश सरकार ने इनका कोटा 13% और बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है. SC का कोटा 16% से बढ़ाकर 20% करने का प्रस्ताव दिया है. ST का कोटा 1% से बढ़ाकर 2% किए जाने का प्रस्ताव सरकार की ओर से दिया गया है. इन सबके अलावा, बिहार में अभी 3% आरक्षण आरक्षित श्रेणी की महिलाओं को भी मिलता है. इनमें EWS कोटे की महिलाएं शामिल नहीं हैं. ये आरक्षण सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मिलता है.
पर आरक्षण बढ़ाने का प्रस्ताव क्यों?
बिहार में जब नीतीश सरकार ने जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी किए थे, तब से ही जितनी आबादी, उतनी हक की बातें कही जा रही थीं. सर्वे के मुताबिक, बिहार में कुल आबादी 13 करोड़ से ज्यादा है. इनमें 27% अन्य पिछड़ा वर्ग और 36% अत्यंत पिछड़ा वर्ग है. यानी, ओबीसी की कुल आबादी 63% है. अनुसूचित जाति की आबादी 19% और जनजाति 1.68% है. जबकि, सामान्य वर्ग 15.52% है. चूंकि, पिछड़ा वर्ग की आबादी सबसे ज्यादा है, इसलिए अब उनका कोटा सबसे ज्यादा बढ़ाने का प्रस्ताव है.
क्या टूट गई आरक्षण की सीमा?
संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है. शुरुआत में आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ 10 साल के लिए थी. उम्मीद थी कि 10 साल में पिछड़ा तबका इतना आगे बढ़ जाएगा कि उसे आरक्षण की जरूरत नहीं पड़ेगी. पर ऐसा हुआ नहीं. फिर 1959 में संविधान में आठवां संशोधन कर आरक्षण 10 साल के लिए बढ़ा दिया. 1969 में 23वां संशोधन कर आरक्षण बढ़ा दिया. तब से हर 10 साल में संविधान संशोधन होता है और आरक्षण 10 साल के लिए बढ़ जाता है.
गौरतलब है कि 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में फैसला सुनाते हुए जातिगत आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी. SC के इसी फैसले के बाद कानून ही बन गया कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता. हालांकि, साल 2019 में केंद्र सरकार ने सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन का विधेयक पारित कर दिया. इससे आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी सीमा के बढ़कर 60 प्रतिशत हो जाने का रास्ता आसान हो गया है. उसके बाद कई राज्यों ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने का फैसला किया और मामला तुरंत कोर्ट में पहुंचा. महाराष्ट्र में 2021 में 50 फीसदी के पार जाकर दिए गए मराठा आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था.
फिलहाल, देश में 49.5% आरक्षण है. ओबीसी को 27%, एससी को 15% और एसटी को 7.5% आरक्षण मिलता है. इसके अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को भी 10% आरक्षण मिलता है. इस हिसाब से आरक्षण की सीमा 50 फीसदी के पार जा चुकी है. हालांकि, पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को आरक्षण देने को सही ठहराया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ये कोटा संविधान के मूल ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचाता है.
'बिहार में अब 75 फीसदी आरक्षण का विधेयक'
वहीं, बिहार की बात करें तो वहां अब तक आरक्षण की सीमा 50% ही थी. EWS को 10% आरक्षण इससे अलग मिलता था. लेकिन, अगर नीतीश सरकार का प्रस्ताव पास हो जाता है तो आरक्षण की 50% की सीमा टूट जाएगी.
नीतीश के फैसले को दी जा सकती है चुनौती?
बताते चलें कि EWS रिजर्वेशन के पहले से कुछ राज्यों में अधिकतम आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा है. इनमें से ज्यादातर राज्यों को कोर्ट में चुनौती मिली है. आने वाले समय में बिहार सरकार के इस फैसले को भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. तमिलनाडु में 1993 से 69 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है.
तमिलनाडु समेत राज्यों में बढ़ाया गया आरक्षण
हालांकि, ऐसा नहीं है कि यह प्रयोग पहली बार बिहार में लागू होने जा रहा है. इससे पहले भी कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट की लिमिट से ज्यादा आरक्षण लागू करने का फैसला लिया है. हालांकि, कोर्ट के आदेश के बाद फैसला वापस लेना पड़ा. वहीं, तमिलनाडु में तो काफी पहले से 69 फीसदी आरक्षण लागू है. वहां पर रिजर्वेशन संबंधित कानून की धारा-4 के तहत 30 फीसदी आरक्षण पिछड़ा वर्ग, 20 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग, 18 फीसदी एससी और एक फीसदी एसटी के लिए रिजर्व किया गया है. तमिलनाडु रिजर्वेशन एक्ट 69 फीसदी रिजर्वेशन की बात करता है, जिसे लेकर कोर्ट में याचिका भी दायर की गई.
झारखंड में भी आरक्षण बढ़ाने का दांव
झारखंड की हेमंत सोरेन की अगुवाई वाली सरकार ने भी राज्य में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण बढ़ाने का फैसला लिया था. सरकार ने कानून में बदलाव किया है. झारखंड में काफी लंबे समय से ओबीसी समुदाय 14 फीसदी आरक्षण को बढ़ाकर 27 फीसदी करने की मांग कर रहा था. विधेयक के मुताबिक, एसटी आरक्षण 26 प्रतिशत से बढ़कर 28 प्रतिशत, ओबीसी आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़कर 27 प्रतिशत, एससी आरक्षण 10 प्रतिशत से बढ़कर 12 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस आरक्षण 10 प्रतिशत रखा गया है. राज्य में कुल आरक्षण 77 फीसदी हो गया है.
कर्नाटक में भी 56 फीसदी आरक्षण
कर्नाटक में आरक्षण की सीमा 56% हो गई है. इसी साल चुनाव से पहले कर्नाटक सरकार ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण 15% से बढ़ाकर 17% और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण बढ़ाकर 3% से 7% कर दिया है. कर्नाटक सरकार ने मुस्लिमों के लिए 4 फीसदी आरक्षण खत्म कर दिया है. उन्हें अब 10 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) श्रेणी में ले जाया जाएगा. मुसलमानों का 4 प्रतिशत कोटा अब वोक्कालिगा (2 प्रतिशत) और लिंगायत (2 प्रतिशत) को दिया जाएगा, जिनके लिए पिछले साल बेलगावी विधानसभा सत्र के दौरान 2C और 2D की दो नई आरक्षण श्रेणियां बनाई गई थीं.
अब आइए जान लेते हैं कि किन राज्यों में रद्द हो गया आरक्षण बढ़ाने का फैसला...
आंध्र प्रदेश को लगा था झटका
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2020 में आंध्र प्रदेश सरकार (तब तेलंगाना अलग नहीं हुआ था) के आरक्षण को लेकर एक फैसले को रद्द कर दिया था. जनवरी 2000 में आंध्र प्रदेश सरकार ने अनुसूचित क्षेत्रों के स्कूलों में शिक्षकों के पद के लिए अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को 100 प्रतिशत आरक्षण देन का फैसला लिया था. इसके लिए तत्कालीन गवर्नर ने आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को असंवैधानिक ठहराया था. शीर्ष अदालत ने कहा कि संविधान के तहत 100 प्रतिशत आरक्षण की अनुमति नहीं है. कोर्ट ने यह भी कहा था कि इससे एससी और ओबीसी भी प्रतिनिधित्व से वंचित हो रहे हैं. आंध्र प्रदेश की सरकार ने 1986 में भी ऐसा ही प्रयास किया था, जिसे 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था. हालांकि, बाद में सीएम जगनमोहन रेड्डी ने ऐतिहासिक फैसला लिया. अब आंध्र प्रदेश ऐसा पहला राज्य बन गया है, जिसने अपने 75 फीसदी प्राइवेट जॉब्स लोकल युवाओं के लिए रिजर्व कर दिए हैं.
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लगा था झटका
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग काफी लंबे समय से हो रही है. राज्य सरकार ने 2018 में मराठा समुदाय को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया था. सरकार के इस फैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. कोर्ट ने जून 2019 में आरक्षण के दायरे को 16 फीसदी से घटाकर शिक्षा में 12 फीसदी और नौकरी में 13 फीसदी आरक्षण देना तय कर दिया था. बॉम्बे HC के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की बेंच ने इंदिरा साहनी केस या मंडल कमीशन केस का हवाला देते हुए मराठा आरक्षण के फैसले को रद्द कर दिया था. राज्य में अब ईडब्लूएस कोटे समेत आरक्षित सीटें 62 प्रतिशत हो गईं.
छत्तीसगढ़ में राज्यपाल के पास अटके विधेयक
छत्तीसगढ़ सरकार ने भी कुल आरक्षण 76 प्रतिशत करने का फैसला लिया है. भूपेश सरकार ने दो विधेयक पारित किए थे. इन विधेयकों के मुताबिक राज्य में एसटी को 32 प्रतिशत, ओबीसी को 27 प्रतिशत, एससी को 13 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस को 4 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इन विधेयकों को लाने की सबसे बड़ी वजह हाईकोर्ट का सितंबर 2021 का वह फैसला था, जिसमें पिछली रमन सिंह सरकार के उस आदेश को निरस्त कर दिया गया था जिसमें एसटी का आरक्षण 20 से बढ़ाकर 32 प्रतिशत किया गया था. हालांकि, दोनों विधेयक अब राजभवन में अटके हैं. राज्यपाल अनुसुइया उईके ने अब तक मंजूरी नहीं दी है. बाद में छत्तीसगढ़ में शिक्षण संस्थाओं में 58 प्रतिशत आरक्षण व्यवस्था लागू करने की सहमति कैबिनेट ने दे दी है. इसी आरक्षण के आधार पर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में भर्ती, प्रमोशन और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश का रास्ता आसान हो गया. 2019 में छत्तीसगढ़ सरकार ने आरक्षण की अधिकतम सीमा को बढ़ाकर 82 प्रतिशत करने का फैसला किया था. हालांकि, अक्टूबर 2019 में हाई कोर्ट ने आरक्षण के इस फैसले पर रोक लगा दी थी.
मध्य प्रदेश में भी नहीं बढ़ सका आरक्षण
मध्य प्रदेश सरकार ने भी 2019 में राज्य सरकार की नौकरियों में 73 प्रतिशत आरक्षण लागू किया था, जिसमें ईडब्लूएस के लिए 10 प्रतिशत रिजर्वेशन भी शामिल था. हालांकि, बाद में हाई कोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगा दी थी. यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था. ओबीसी आरक्षण का मामला भी गरमाया था.
राजस्थान भी चाहता है 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण
राजस्थान में गुर्जर समुदाय के अलग से आरक्षण की मांग काफी लंबे समय से हो रही है, जिसे लेकर कई बार कदम उठाए गए. लेकिन, कोर्ट में इसे कानूनी मंजूरी नहीं मिल पाती है. हरियाणा में जाट, गुजरात में पटेल समाज भी आरक्षण देने की मांग करता आ रहा है. मार्च 2022 में हरियाणा ने प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में स्थानीय युवाओं के लिए 75 प्रतिशत आरक्षण से जुड़ा कानून पास किया था. वहां 30 हजार रुपये महीने तक वाली प्राइवेट नौकरियों में स्थानीय लोगों को 75 प्रतिशत रोजगार दिया जाएगा.
क्या है संविधान की 9वीं अनुसूची?
संविधान की इस अनुसूची में केंद्रीय और राज्य कानूनों की एक सूची है, जिसे न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है. नौवीं अनुसूची को 1951 के पहले संविधान संशोधन के जरिए जोड़ा गया था. संविधान के अनुच्छेद 31 ए और 31बी के तहत इसमें शामिल कानूनों को न्यायिक समीक्षा से संरक्षण हासिल है. आसान शब्दों में कहें तो संविधान की नौंवी सूची में शामिल कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर होते हैं. यानी सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट उसकी समीक्षा नहीं कर सकते. इसीलिए अक्सर आरक्षण से जुड़े कानूनों को नौवीं अनुसूची में डालने की मांग होती रहती है.