आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव पूरे फॉर्म में हैं. विपक्षी एकता की मुहिम भले ही बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने शुरू की, लेकिन महफिल लूटने में लालू प्रसाद यादव नीतीश कुमार से आगे निकल गए. किडनी ट्रांसप्लांट कराने के बाद लालू यादव पुराने रूप में लौट आए हैं. भाषण-बयान हो या किसी से मिलना-जुलना, सब पुराने अंदाज में लालू करने लगे हैं. नीतीश कुमार को इससे ईर्ष्या जरूर होती होगी. सच कहें तो ईर्ष्या से अधिक उन्हें चिंता हो रही होगी कि लालू का अगर यही अंदाज रहा तो वे न घर के रह पाएंगे और न घाट के.
पटना में विपक्षी दलों की पहली बैठक जब टल गई थी तो लालू प्रसाद की ही पहल पर राहुल गांधी और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बैठक की नई तारीख पर हाजिर रहने का आश्वासन दिया. बैठक में लालू ने भी शिरकत की. लालू के आते ही बैठक का माहौल खुशमिजाज हो गया था. एकता के मुद्दे पर बैठक में चर्चा हुई ही, सबसे अधिक चर्चित रही लालू की राहुल गांधी को शादी की सलाह. लालू का प्रभाव तब भी दिखा, जब राहुल ने नीतीश से मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में पूछा. नीतीश कुमार की नजर इस सवाल पर सबसे पहले लालू की ओर गई थी. यह ठीक है कि लालू को भी नीतीश की तरह बेंगलुरु बैठक में उतनी तरजीह नहीं मिली, जितनी ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को कांग्रेस ने दी, लेकिन लालू ने कभी अपनी पीड़ा का इजहार नहीं किया. उन्हें पता था कि कांग्रेस को उनकी कितनी जरूरत है.
लालू की पार्टी आरजेडी और कांग्रेस का पुराना रिश्ता रहा है. वे कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में रेल मंत्री रह चुके हैं. बिहार में दुर्दिन में भी आरजेडी ने कांग्रेस को अकेला नहीं छोड़ा. चाहे 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव हो, 2019 का लोकसभा इलेक्शन या 2020 का विधानसभा चुनाव, लालू की पार्टी ने कांग्रेस को साथ रखा. खुद नुकसान उठा कर भी आरजेडी ने कांग्रेस को 2020 के विधानसभा चुनाव में मुंहमांगी 70 सीटें दे दी थीं. आज भी लोग मानते हैं कि कांग्रेस को अगर आरजेडी ने उतनी सीटें नहीं दी होती तो उसी साल बिहार में महागठबंधन की सरकार बन जाती. दूर की बात छोड़ भी दें तो अगस्त 2022 में नीतीश के महागठबंधन के साथ आते ही राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एकजुट करने की बात तय हुई. तब सोनिया गांधी से नीतीश की मुलाकात लालू यादव ने ही कराई थी. उसके बाद कांग्रेस नेताओं से आगे की बातचीत के लिए नीतीश भले बेचैन रहे, लेकिन आठ महीने बाद खरगे ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया.
आपको बता दें कि लालू यादव का रुतबा ऐसा है कि राहुल गांधी उनसे मिलने खुद आ गए. बीमारी, बुढ़ापा और सजायाफ्ता का दाग लगने के बावजूद लालू की सियासी औकात दूसरे विपक्षी नेताओं पर भारी है. यह उसी दिन साफ हो गया, जब सुप्रीम कोर्ट से मानहानि मामले में सजा पर स्टे लगने के कुछ ही देर बाद राहुल गांधी लालू से मिलने के लिए उनके ठिकाने पर पहुंच गए. लालू अपनी बेटी राज्यसभा की सदस्य मीसा भारती के आवास पर ठहरे थे. राहुल ने न सिर्फ मुलाकात-बात की, बल्कि लालू के आग्रह पर उन्होंने डिनर भी साथ किया. राहुल के लिए लालू ने बिहार के चंपारण की शैली में बने आहुना मटन का इंतजाम किया था. इसे लेकर सवाल भी उठे कि सावन में हिन्दू घरों में मांसाहार वर्जित होता है, फिर भी लालू ने मटन खिलाया और खुद खाया भी.
लालू यादव की सक्रियता अनायास नहीं है. महागठबंधन के साथ नीतीश के आते ही यह तय हुआ था कि वे केंद्र की राजनीति करेंगे और लालू के बेटे तेजस्वी यादव बिहार की सत्ता संभालेंगे. नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता की गाड़ी आगे नहीं बढ़ते देख अपनी चाल चली. उन्होंने 2025 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ने की बात कह कर अपने लिए वक्त ले लिया. यह ठीक वही वक्त था, जब लालू की किडनी ट्रांसप्लांट की बात चल रही थी. उसके बाद वे सिंगापुर चले गए थे. सिंगापुर से लौटते ही फिर विपक्षी एकता के काम में नीतीश को लालू ने लगा दिया. नीतीश ने भागदौड़ शुरू की. उनका काम आसान करने के लिए तेजस्वी ने भी साथ दिया. तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन से तेजस्वी ने संपर्क बनाए रखा. उनके कार्यक्रमों में वे शिरकत करते रहे. यही वजह रही कि स्टालिन को विपक्षी बैठक का औपचारिक न्योता देने के लिए तेजस्वी तमिलनाडु गए. स्टालिन आए भी तो उन्होंने सबसे पहले लालू से मुलाकात की.
दरअसल, लालू यादव अपने बेटे तेजस्वी यादव को सीएम बनाने की हड़बड़ी में हैं. उन्हें पता है कि नीतीश कुमार के तमाम फैसलों में उनकी ही भूमिका है, लेकिन इसका क्रेडिट तेजस्वी को सीधे-सीधे नहीं मिल रहा है. लालू यह भी जानते हैं कि आरजेडी के स्क्रिप्ट पर नीतीश भले काम करें, लेकिन इसका चुनावी लाभ किसी को नहीं मिलने वाला है. इसलिए लालू चाहते हैं कि जितनी जल्दी हो सके, नीतीश को बिहार से बाहर का रास्ता दिखाया जाए. दो बैठकों के बावजूद विपक्षी दलों की कोआर्डिनेशन कमेटी इसलिए नहीं बन पाई कि कांग्रेस इसका संयोजक नीतीश को बनाने के पक्ष में नहीं है. ऐसा हुए बिना तेजस्वी की ताजपोशी संभव नहीं होगी. इसलिए राहुल से मुलाकात में लालू ने सुझाव दिया कि समन्वय समिति में दो पद सृजित किए जाएं. एक पद अध्यक्ष का हो और दूसरा पद संयोजक का. संयोजक पद पर नीतीश को बिठा दिया जाए, जबकि खुद सोनिया गांधी चेयरपर्सन बनें. इससे नीतीश के लिए बिहार छोड़ने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा. ऐसा होते ही तेजस्वी के हाथ बिहार की कमान होगी और लालू का सपना भी पूरा हो जाएगा.
इधर, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी भी नीतीश मुक्त बिहार बनाने का नारा दे रहे हैं. उन्होंने तो साफ तौर पर कहा कि यह गठबंधन ही नहीं है. सभी दल अपनी अपनी महत्वाकांक्षा और भ्रष्टाचार से बचने के लिए एक हुए हैं. वहीं, राष्ट्रीय लोक जनता दल के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा ने दावा करते हुए कहा कि राहुल गांधी और लालू प्रसाद में अंदर-अंदर डील हुई है. बिहार की राजनीति से नीतीश कुमार को मुक्त कर देना है और तेजस्वी की बिहार में ताजपोशी कर देनी है. उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि लालू यादव, नीतीश कुमार को बिहार से आगे राजनीति में नहीं ले जाने वाले हैं, सिर्फ उनका मकसद इतना ही है कि अपने बेटे को कैसे मुख्यमंत्री बनाएं.
सियासी पंडितों का कहना है कि कांग्रेस भी जानती है कि बिहार में लालू यादव बड़ा फैक्टर हैं. आरजेडी प्रमुख लालू यादव के बिना कांग्रेस अपनी खोई जमीन बिहार में फिर से हासिल नहीं कर सकती. यही कारण है कि कांग्रेस की पहली पसंद लालू यादव ही हैं. शायद यही कारण था कि सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने के बाद राहुल गांधी सबसे पहले लालू यादव से मिलने पहुंचे थे.