बिहार में हफ्ते भर से चल रहा अटकलों का दौर आखिरकार शुक्रवार को खत्म हो गया. लोकसभा चुनाव से पहले जनता दल यूनाइटेड (JDU) में बड़ा बदलाव हुआ. राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने इस्तीफा दे दिया तो वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर पार्टी की कमान संभाल ली है. बताया जा रहा है कि कुछ सप्ताह पहले ही ललन सिंह को पद से हटाने की स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी लेकिन ऐसा आखिर क्यों किया गया इसके पीछे कुछ अलग ही कहानी बताई जा रही है. जिस तरीके से नीतीश कुमार ने ललन सिंह को किनारे लगाया है, उसके पीछे की इनसाइड स्टोरी भी जबर्दस्त है.
इस कहानी की शुरुआत तब से होती है, जब ललन सिंह पिछले कुछ महीनो में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के करीब आते हैं और दोनों नेताओं के बीच घनिष्ठता बढ़ती है. राजनीति में उठाया गया कोई भी कदम बिना किसी मकसद के नहीं होता है और इसी आधार पर ललन सिंह और लालू प्रसाद के बीच नजदीकी की भनक नीतीश कुमार को भी लगी, लेकिन उस वक्त नीतीश कुमार ने ललन सिंह को लेकर कोई कदम नहीं उठाया.
इस पूरे घटनाक्रम का पहला चैप्टर तब लिखा गया, जब ललन सिंह ने नीतीश कुमार के एक करीबी वरिष्ठ मंत्री के साथ मिलकर उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव नीतीश के सामने रखा. जिसे नीतीश कुमार ने खारिज कर दिया. जानकारी के मुताबिक ललन सिंह नीतीश कुमार को यह मनवाने की कोशिश कर रहे थे कि वह 18 साल से बिहार में मुख्यमंत्री के पद पर रह चुके हैं और उन्हें अब सत्ता तेजस्वी को सौंप देनी चाहिए, जिसके लिए नीतीश नहीं तैयार हुए.
ललन और लालू के बीच हुई ये डील!
ललन सिंह के तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के प्रस्ताव को जब नीतीश कुमार ने ठुकरा दिया तो उसके बाद ही ललन सिंह ने जनता दल यूनाइटेड को तोड़ने की प्लानिंग शुरू कर दी. सूत्रों के मुताबिक कुछ सप्ताह पहले जनता दल यूनाइटेड के तकरीबन 12 विधायकों की एक गुप्त बैठक हुई थी और डील के मुताबिक ललन सिंह इन 10-12 विधायकों की मदद से तेजस्वी यादव की ताजपोशी कराने के चक्कर में थे, लेकिन इस सीक्रेट मीटिंग की भनक नीतीश कुमार को लग गई.
ललन सिंह जाना चाहते थे राज्यसभा
ललन सिंह और लालू प्रसाद के बीच जो सीक्रेट डील हुई थी, उसके मुताबिक ललन सिंह को तकरीबन जनता दल यूनाइटेड के 12 विधायकों को तोड़कर तेजस्वी यादव की सरकार बनानी थी और इसके बदले में राजद उन्हें राज्यसभा भेजती. विधानसभा में अगर संख्या बल की बात करें तो बिना जनता दल यूनाइटेड (45) के आरजेडी (79), कांग्रेस (19), सीपीआईएमएल (12), सीपीआई (2), सीपीएम (2) और निर्दलीय (1) मिलाकर कुल 115 की संख्या है. ऐसे में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनने के लिए 7 अन्य विधायकों की जरूरत थी, जिसकी जुगाड़ में ललन सिंह लगे हुए थे.
क्या होता अगर ललन अपनी प्लानिंग में कामयाब हो जाते?
ललन सिंह अगर अपने प्लानिंग में कामयाब हो जाते तो उन्हें आरजेडी राज्यसभा भेज सकती थी, क्योंकि अगले साल यानी अप्रैल 2024 में राज्यसभा में पार्टी सांसद मनोज झा की सदस्यता समाप्त होने वाली है और उन्हीं के बदले लालू प्रसाद ललन सिंह को राज्यसभा भेज सकते थे. जानकारी के मुताबिक ललन सिंह को यह एहसास हो गया था कि मौजूदा समय में वह मुंगेर से लोकसभा सांसद हैं और अगर दोबारा वह मुंगेर से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे तो उनकी स्थिति इस बार बहुत खराब है और वह चुनाव हार भी सकते हैं और इसी कारण से वह राज्यसभा जाना चाहते थे.
क्या JDU के बागी विधायक हो जाते अयोग्य?
ललन सिंह की प्लानिंग के मुताबिक एक बात सामने आ रही है कि क्या जनता दल यूनाइटेड के दर्जनभर विधायक पार्टी से बगावत कर राजद की सरकार बना देते तो क्या उनकी सदस्यता समाप्त हो जाती, क्योंकि एंटी डिफेक्शन कानून के मुताबिक अगर 2/3 से कम विधायक अगर पार्टी से बगावत करते हैं, तो उन सब की सदस्यता जा सकती है. जनता दल यूनाइटेड के मामले में देखें तो अयोग्यता से बचने के लिए कम से कम 30 विधायकों को एक साथ पार्टी तोड़कर आरजेडी का समर्थन करना पड़ता, लेकिन सवाल उठता है कि ऐसे में ललन सिंह कैसे केवल दर्जनभर विधायकों के साथ तेजस्वी की सरकार बनाने की सोच रहे थे?
अध्यक्ष पद की ताकत का इस्तेमाल करने वाले थे ललन!
इसके पीछे की कहानी ये है कि यह शक्ति केवल पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पास होता है कि अगर वह किसी भी मौजूदा सिटिंग विधायक को पार्टी से निकाल देते हैं तो उनकी सदस्यता समाप्त नहीं होगी. ऐसे में प्लानिंग के मुताबिक ललन सिंह अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का फायदा उठाते हुए दर्जनभर विधायकों को पार्टी से निकालने जा रहे थे और फिर यह सभी विधायक जो अयोग्य नहीं करार दिए जाते, वह तुरंत तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनते ही मंत्री पद की शपथ लेते और फिर बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में सरकार बन जाती. इस पूरे खेल में विधानसभा स्पीकर की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि इन दर्जनभर विधायकों को अयोग्य करार ना दिया जाए, इस मामले में स्पीकर की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. इसीलिए पिछले कुछ दिनों से लगातार ललन सिंह विधानसभा स्पीकर अवध बिहारी चौधरी के संपर्क में थे जो कि राजद के विधायक भी हैं.
कहां बिगड़ा ललन का खेल?
प्लानिंग के मुताबिक अवध बिहारी चौधरी इन सभी दर्जनभर विधायकों को मान्यता दे देते और फिर बिहार में तेजस्वी सरकार बन जाती, लेकिन इस पूरे प्लानिंग की खबर नीतीश कुमार को लग गई. बताया जा रहा है कि दर्जनभर विधायकों ने जिन्होंने गुप्त मीटिंग की थी उन्हीं में से एक ने नीतीश कुमार को यह खबर लीक कर दी. जिसके बाद नीतीश कुमार ने "ऑपरेशन ललन" की शुरुआत कर दी.
अब बात विपक्षी पार्टी की कर लेते हैं..................जदयू की तरफ से भले ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलने की अटकलों को खारिज किया जाता रहा लेकिन भाजपा के राज्यसभा सांसद और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी डंके की चोट पर दावा कर रहे थे कि 29 दिसंबर को जदयू राष्ट्री य अध्यक्ष पद से ललन सिंह इस्तीफा देंगे. उधर रालोजद सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा दावा कर रहे थे कि नीतीश कुमार के साथ धोखा हुआ है. ललन सिंह राजद से मिलकर सत्ता पलट की व्यूहरचना तैयार कर रहे थे. ये दोनों कभी नीतीश कुमार के काफी करीबी रहे हैं.
इस तरह एनडीए नेताओं के दावे सही निकले पर अब ज्यादा अहम सवाल है, आगे क्या? ललन सिंह का अध्यक्ष पद छोड़ना कई सियासी कयासों को जन्म दे गया है. नीतीश कुमार ऐसे फैसले तभी लेते हैं जब किसी की पार्टी के प्रति निष्ठा पर उन्हें कोई शक हो. जदयू के अंदर सत्ता बदलने के बाद क्या अब राज्य का सत्ता समीकरण बदलने वाला है? नीतीश कुमार की जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद से भाजपा नेताओं के सुर भी बदले नजर आ रहे हैं.
नीतीश कुमार पर तीखी टिप्पणी करते रहे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी की प्रतिक्रिया है कि यह जदयू का आंतरिक मामला है, भाजपा का इससे कोई लेना-देना नहीं. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि जदयू का एक ही नेता हैं नीतीश कुमार, दूसरा कोई नहीं उन्होंने कभी आरसीपी सिंह को तो कभी ललन सिंह को बना दिया.
वहीं जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि भाजपा हमारी दुश्मन नहीं है. राजनीति में कोई भी दुश्मन नहीं होता. इस तरह केसी त्यागी ने खुलकर तो कुछ भी नहीं कहा, लेकिन इस बात का इशारा जरूर कर दिया कि जरूरत के वक्त कुछ भी हो सकता है.
उधर, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की यात्रा रद्द होने और नीतीश कुमार के पार्टी अध्यक्ष बनने पर उनकी तंग प्रतिक्रिया के भी निहितार्थ निकाले जा रहे हैं. तेजस्वी की प्रतिक्रिया में वह ओज और उत्साह नहीं था. उन्होंने कहा कि हां बने हैं, अच्छी बात है. बधाई देता हूं. गुरुवार को उन्होंने कहा था कि ललन सिंह जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से नहीं हटेंगे.
जाहिर है, अगले कुछ दिन बिहार की सियासत के लिए अहम होंगे. क्या जदयू फिर एनडीए का हिस्सा बनने जा रहा है? यह सवाल लोगों को ज्यादा मथ रहा है. जानकारों का अनुमान और सियासी गलियारे की गुफ्तगू इसी तरफ इशारा कर रहे हैं. ललन सिंह को अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है, इसका कारण जो अब तक सुर्खियों में है कि ललन सिंह लालू और तेजस्वी के करीब बन उन्हें मजबूत करने की जुगत कर रहे थे.
मीडिया में यह बात कई दिनों से सुर्खियों में रही, लेकिन किसी जदयू नेता ने इसका खंडन नहीं किया और यह कारण सही है तो बिहार में फिर नया सत्ता समीकरण के आकार लेने की बड़ी वजह भी यही होगा. आरसीपी सिंह को जब राष्ट्रीय अध्यक्ष से हटाया गया था तो कौन जानता था कि यह जदयू के एनडीए से अलग होने का संकेत है. उस समय आरसीपी पर भाजपा के करीब हो जाने का अंदेशा था. नीतीश कुमार ने एक बार प्रेस कान्फ्रेंस में कहा था कि ललन सिंह और बिजेन्द्र प्रसाद यादव ने राजद के साथ गठबंधन की सलाह दी थी. वैसे जदयू ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जो राजनीतिक प्रस्ताव पारित किए हैं, उसका लब्बोलुआब यही है कि केन्द्र की एनडीए सरकार को वह लोकतंत्र के लिए खतरा मानता है और उसके खिलाफ आगे भी लड़ाई जारी रहेगी.