बिहार के मुखिया नीतीश कुमार आजकल बात-बात पर झुंझला जा रहे हैं. दूसरों से उलझ जाते हैं. कहां, कब और क्या बोलना चाहिए, इसका ध्यान भी उन्हें नहीं रहता है. पहले नीतीश में ये अवगुण नहीं थे. कभी मीडिया से बात न करने की धमकी देते हैं तो कभी मीडिया पर प्रबंधन के अंकुश की बात पर तरस भी खाते हैं. उनके अंदाज से लगता है कि वे मानसिक तौर पर उलझे हुए हैं और इसी उलझन से उत्पन्न झुंझलाहट में उनकी जुबान से कई ऐसी बातें निकल जाती हैं, जो लोगों को नागवार गुजर जाती है.
बिहार के सीएम नीतीश कुमार की यह खूबी रही है कि किसी के आरोपों पर बिना कोई प्रतिक्रिया दिये शांत भाव से वह चुपचाप अपने काम में व्यस्त रहते हैं. पिछले दो-तीन साल में उनके स्वभाव में परिवर्तन आ गया है. गया की पार्षद के बेटे ने जब रोड रेज में एक युवक को मार डाला था या सारण जिले में जहरीला मिड डे मील खाकर बच्चे बीमार हुए थे तो तत्कालीन विपक्ष ने उनकी खूब खिंचाई की थी. तब भी नीतीश खामोश रहे. अब वह बात-बात पर झुंझला जाते हैं. उनकी झुंझलाहट गुस्से के रूप में फूट पड़ती है. तीन दिनों पहले बिहार असेंबली में उनका जो रौद्र रूप दिखा, उसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी. तू-तड़ाक से लेकर देख लेंगे, ठोक देंगे या ठंडा कर देंगे जैसी शब्दावली का प्रयोग उनकी जुबान से अब अक्सर निकल जाता है.
नीतीश कुमार पहले गंभीर पॉलिटिशियन माने जाते थे, पर उम्र के इस पड़ाव पर उनकी जुबान से ऐसी बातें या शब्द निकल जाती हैं, जिसके लिए उनकी किरकिरी हो रही है. आखिर नीतीश कुमार में यह परिवर्तन कैसे आ गया? दरअसल इसके पीछे राजनीति के वो 'पंचतत्व' हैं, जिसने नीतीश कुमार को परेशान कर डाला है.
पहला तत्व- अपने साथ छोड़ते गये, अकेले दिख रहे नीतीश
यह भी एक कारण हो सकता है. अलग-अलग कारणों से नीतीश के लिए लाभकारी लोग भी साथ छोड़ते गए हैं. चुनावी रणनीतिकार और कभी नीतीश के सबसे करीबी रहे प्रशांत किशोर ने उनका साथ छोड़ दिया. अब वे नीतीश कुमार की जमीन खोदने में लगे हैं. नीतीश कुमार के दूसरे भरोसेमंद साथी और खुद को कुशवाहा वोटों के एकमात्र दावेदार बताने वाले उपेंद्र कुशवाहा भी नीतीश से अलग हो चुके हैं. उनके हमले भी नीतीश पर खूब होते रहे हैं. जिस जीतन राम मांझी को नीतीश कुमार ने विधानसभा में खूब खरी-खोटी सुनाई, वे भी कभी नीतीश के विश्वासपात्र हुआ करते थे. अब भाजपा के साथ वे भी नीतीश कुमार की आलोचना से कभी परहेज नहीं करते. पिछले 10-11 महीनों में दर्जन भर से ज्यादा साथी जेडीयू छोड़ चुके हैं. जिन्होंने नीतीश का साथ छोड़ा, वे सभी अब उनके दुश्मन बने हुए हैं.
दूसरा तत्व- आरजेडी का CM पद छोड़ने का अघोषित दबाव
नीतीश कुमार भले इस बात से इनकार करते रहे हैं कि आरजेडी की किसी शर्त के तहत वे महागठबंधन सरकार के सीएम बने हैं. उपेंद्र कुशवाहा शुरू से लेकर जेडीयू छोड़ने तक यही बात दोहराते रहे कि नीतीश कुमार आरजेडी के साथ हुई डील का खुलासा करें. कुशवाहा का दावा है कि नीतीश कुमार ने आरजेडी नेता तेजस्वी यादव को अपना उत्तराधिकारी बनाने की शर्त पर आरजेडी का समर्थन लिया. नीतीश ने कभी उनके इस सवाल का जवाब तो नहीं दिया, लेकिन बाद में आरजेडी के विधायक सुधाकर सिंह और एमएलसी सुनील कुमार सिंह ने जिस तरह से नीतीश के खिलाफ कैंपेन शुरू किया, उससे यह अनुमान तो लग ही गया कि आरजेडी और जेडीयू के बीच सत्ता साझीदारी की जरूर कोई डील हुई है. सुनील कुमार सिंह तो रह-रह कर सोशल मीडिया के माध्यम से नीतीश की धज्जियां उड़ाते रहे हैं. नीतीश ने डील की बात को बिना बताए यह कह कर स्वीकारोक्ति दे दी कि महागठबंधन वर्ष 2025 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव के नेतृत्व में ही लड़ेगा.
तीसरा तत्व- विपक्षी गठबंधन में घटती पूछ से भी नाराजगी
यह बात सर्वविदित है कि विपक्ष को एकजुट करने का मुकम्मल प्रयास सबसे पहले नीतीश कुमार ने शुरू किया. विपक्षी नेताओं से नीतीश मिले. उन्हें एक मंच पर जुटाया. हालांकि विपक्षी एकता के प्रयास पहले भी बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और तेलंगाना के सीएम केसी राव ने किया था, लेकिन मुकाम तक पहुंचने के पहले ही प्रयास पर पानी फिर गया. इसकी वजह यह थी कि दोनों खुद को पीएम बनते देखना चाहते थे. नीतीश ने पीएम पद की दावेदारी छोड़ कर सबको जुटाया. उन्हें इस बात पर भी आपत्ति नहीं थी कि कांग्रेस का ही कोई आदमी पीएम पद का दावेदार होगा. इसके बावजूद नीतीश को बाद में किसी ने तरजीह नहीं दी. जिस कांग्रेस को आगे बढ़ाने और विपक्ष का सर्वस्वीकार्य दल बनाने के लिए के लिए नीतीश ने इतनी कोशिश की, उसी ने बाद में उन्हें दरकिनार कर दिया. नीतीश को यह उम्मीद थी कि उन्हें संयोजक बनाया जाएगा, पर यह बात भी खाली गई. नीतीश ने विपक्षी एकता के लिए एड़ी चोटी एक कर दी, लेकिन आखिर में उन्हें ही किनारे ला दिया गया. उल्टे लालू प्रसाद यादव की पूछ कांग्रेस की नजरों में बढ़ गई. नीतीश ने अपनी पीड़ा का इजहार सीपीआई के सम्मेलन में कर भी दिया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस को लोकसभा चुनाव की चिंता नहीं है. वह तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में व्यस्त है. यानी विपक्षी गठबंधन से नीतीश अब निराश हो चुके हैं.
चौथा तत्व- भाजपा और उसके सहयोगी दलों का हल्ला बोल
नीतीश कुमार की परेशानी इसलिए भी बढ़ी हुई है कि कभी साथी रही भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां ही अब नीतीश कुमार की पोल पट्टी खोलने में लगी हुई हैं. जीतन राम मांझी के सवाल को भाजपा इस रूप में पेश कर रही है कि नीतीश ने एक महादलित नेता को सदन में अपमानित किया. जनसंख्या नियंत्रण के संबंध में विधानसभा और विधान परिषद में नीतीश के महिलाओं पर दिए बयान के बाद भाजपा और उसके सहयोगी दल तो यह कहने लगे हैं कि नीतीश का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया है. इसके अलावा जनसुराज यात्रा पर निकले प्रशांत किशोर भी लालू के साथ नीतीश की जड़ें खोदने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे. जाहिर है कि ऐसी स्थिति में किसी को भी झुंझलाहट तो होगी ही.
पांचवां तत्व- सिटिंग सीटों और अपने भविष्य को लेकर चिंतित
एक सच यह भी है कि नीतीश लोकसभा चुनाव में अपने सिटिंग सांसदों के टिकट भी कन्फर्म करने की स्थिति में नहीं हैं. आरजेडी नीतीश की पार्टी जेडीयू को इतनी सीटें देने को तैयार नहीं है. नीतीश अगर अपने सिटिंग सांसदों को एकॉमोडेट नहीं कर सके तो जेडीयू में जिस टूट की आशंका बीजेपी और उसकी साथी पार्टियां जताती रही हैं, वह सच होने में तनिक भी देर नहीं लगेगी. आरजेडी सीटों के बंटवारे के लिए विधायकों की संख्या को आधार बनाना चाहता है, जैसा पिछली बार नीतीश ने बीजेपी के साथ किया था. इसी आधार पर बीजेपी से बारगेन कर उन्होंने उसके बराबर सीटें ले ली थीं. बीजेपी को अपनी पांच सिटिंग सीटें छोड़नी पड़ी थीं. अब वही तरीका नीतीश के गले की हड्डी बन गया है.