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कैसे पास होगा एक देश-एक चुनाव बिल, क्या होगा फायदा? ये हैं 3 विकल्प

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केंद्र सरकार ने 'वन नेशन, वन इलेक्शन' को लेकर बड़ा कदम उठाते हुए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेठी गठित की है. पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में कमेटी कानून के सभी पहलुओं पर विचार करेगी और एक देश, एक चुनाव की संभावना का पता लगाएगी. कमेटी लोगों की राय भी लेगी. पैनल में और कौन शामिल होंगे, इस बारे में अभी जानकारी सामने नहीं आई है. सदस्यों के बारे में अधिसूचना बाद में जारी की जाएगी. वन नेशन, वन इलेक्शन के विचार का मतलब देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने से है.

बता दें कि केंद्र सरकार साल 2018 से ही ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ पर जोर देती आ रही है. हालांकि, विपक्ष इसके विरोध में है. केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर के बीच पांच दिवसीय विशेष सत्र बुलाया है. ये जानकारी संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए दी. पिछले 10 सालों में यह पहली बार है, जब मोदी सरकार ने कोई स्पेशल सेशन बुलाया. माना जा रहा कि इस दौरान एक बार फिर ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ बिल केंद्र सरकार ला सकती है. बताते चलें कि मोदी सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक लोकसभा और राज्यसभा का विशेष सत्र बुलाया है जिसमें 5 बैठकें होंगी. कहा जा रहा है कि सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) और महिला आरक्षण बिल भी पेश कर सकती है......आखिर क्या है ये ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ बिल और क्यों बीजेपी इसके पक्ष में है. सवाल है कि विशेष सत्र क्यों? मोदी सरकार क्या कोई बड़ा कदम उठाने वाली है? इसे लेकर अटकलें लगने लगीं और तीन बातें सामने आईं.

सबसे पहले समझ लेते हैं कि क्या है वन नेशन वन इलेक्शन?

आसान शब्दों में इसका मतलब यह है कि एक ही समय पर लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाना. मौजूदा समय बीजेपी इसके पक्ष में है. उनका विचार है कि वन नेशन वन इलेक्शन से खर्चा भी कम आएगा. फिलहाल होता क्या है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं. जब किसी राज्य की एक विधानसभा का कार्यकाल पूरा होता है तब वहां चुनाव करवा दिए जाते हैं. कहीं 2021 में चुनाव हुए तो कहीं 2024 में होंगे. वहीं, लोकसभा के भी अपने कार्यकाल के हिसाब से चुनाव होते हैं. ऐसे में बीजेपी चुनाव से होने वाले खर्चे को कम करने के लिए वन नेशन वन इलेक्शन बिल के लिए जोर दे रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर एक देश-एक चुनाव की वकालत करते रहे हैं. पिछले महीने भी राज्यसभा में चर्चा के दौरान पीएम मोदी ने एक देश-एक चुनाव को समय की जरूरत बताया था. लेकिन सवाल ये उठता है कि ये सब होगा कैसे? संसद के मॉनसून सत्र में सरकार ने इसका जवाब दिया था. केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में बताया था कि साथ में चुनाव कराने के लिए संविधान के अनुच्छेद- 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करना होगा.

आपको बता दें कि आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे. इसके बाद 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गई. उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई. इससे एक साथ चुनाव की परंपरा टूट गई. अगस्त 2018 में एक देश-एक चुनाव पर लॉ कमीशन की रिपोर्ट आई थी. इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि देश में दो फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं. पहले फेज में लोकसभा के साथ ही कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव. और दूसरे फेज में बाकी राज्यों के विधानसभा चुनाव. लेकिन इसके लिए कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना होगा तो किसी को समय से पहले भंग करना होगा. और ये सब बगैर संविधान संशोधन के मुमकिन नहीं है.

संशोधन क्यों? 

अगस्त 2018 में एक देश-एक चुनाव पर लॉ कमीशन की रिपोर्ट आई थी. इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि देश में दो फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं. 

पहले फेज में लोकसभा के साथ ही कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव. और दूसरे फेज में बाकी राज्यों के विधानसभा चुनाव. लेकिन इसके लिए कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना होगा तो किसी को समय से पहले भंग करना होगा. और ये सब बगैर संविधान संशोधन के मुमकिन नहीं है. 

ये पांच अनुच्छेद क्या कहते हैं?

अनुच्छेद-83: इसके मुताबिक, लोकसभा का कार्यकाल पांच साल तक रहेगा. अनुच्छेद- 83(2) में प्रावधान है कि इस कार्यकाल को एक बार में सिर्फ एक साल के लिए बढ़ाया जा सकता है.

अनुच्छेद-85: राष्ट्रपति को समय से पहले लोकसभा भंग करने का अधिकार दिया गया है.

अनुच्छेद-172: इस अनुच्छेद में विधानसभा का कार्यकाल पांच साल का तय किया गया है. हालांकि, अनुच्छेद-83(2) के तहत, विधानसभा का कार्यकाल भी एक साल के लिए बढ़ाया जा सकता है.

अनुच्छेद-174: जिस तरह से राष्ट्रपति के पास लोकसभा भंग करने का अधिकार है, उसी तरह से अनुच्छेद-174 में राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का अधिकार दिया गया है.

अनुच्छेद-356: ये किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान करता है. राज्यपाल की सिफारिश पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है.

फिर साथ हो सकेंगे चुनाव?

विकल्प 1: कुछ राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही होते हैं. कुछ राज्यों में लोकसभा से कुछ महीने पहले होते हैं. तो वहीं, कुछ राज्यों में लोकसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही चुनाव होते हैं. ऐसे में कुछ राज्यों में विधानसभा समय से पहले भंग करके और कुछ का कार्यकाल बढ़ाकर लोकसभा चुनाव के साथ ही चुनाव कराए जा सकते हैं.

कैसे हो सकता है?: मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले होने हैं. इसी तरह आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, ओडिशा और सिक्किम में चुनाव लोकसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद होंगे. ऐसे में जिन राज्यों में पहले चुनाव होने हैं, उनका कार्यकाल बढ़ाया जाए और जहां बाद में चुनाव होने हैं, वहां समय से पहले विधानसभा भंग की जाए तो फिर अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव के साथ ही यहां विधानसभा चुनाव हो सकते हैं.

विकल्प 2: कई राज्यों में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के दो साल बाद खत्म होती है. ऐसे में दो फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं. पहले फेज में लोकसभा के साथ ही कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव हो जाएं. और दूसरे फेज में बाकी बचे राज्यों के चुनाव हो जाएं. ऐसा होता है तो पांच साल में दो बार ही विधानसभा चुनाव होंगे.

कैसे हो सकता है?: असम, बिहार, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, दिल्ली, पुडुचेरी, पंजाब, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में होने विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में एक से दो साल का अंतर है. ऐसे में इन राज्यों में दूसरे फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं.

विकल्प 3: लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि अगर एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते, तो फिर एक साल में होने वाले सभी चुनाव साथ में करा दिए जाएं. इससे साल में बार-बार होने वाले चुनावों से बचा जा सकेगा. 

कैसे हो सकता है?: हमारे देश में हर साल औसतन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होते हैं. इन सभी राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल अलग-अलग महीनों में खत्म होता है. इस वजह से सालभर कहीं न कहीं चुनाव का माहौल रहता है. ऐसे में इन सभी राज्यों में एक-साथ ही चुनाव करवा दिए जाएं.

ऐसा हुआ तो कोई दिक्कत नहीं होगी फिर?

साथ चुनाव कराने पर भी दो तरह की संवैधानिक दिक्कतें आ सकतीं हैं. पहली तो ये कि चुनाव में किसी एक पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला तो फिर क्या होगा? और दूसरी समस्या ये कि कार्यकाल पूरा किए बगैर ही सरकार समय से पहले गिर गई, तो फिर से एक साथ-एक चुनाव वाली स्थिति बिगड़ जाएगी?

लेकिन लॉ कमीशन ने इन दोनों समस्याओं को लेकर भी सुझाव दिए हैं. पहली वाली दिक्कत यानी बहुमत न मिलने की स्थिति पर ये सुझाव है कि चुनाव के बाद राष्ट्रपति या राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को सरकार बनाने का न्योता दें. अगर फिर भी सरकार नहीं बन पाती है तो मध्यावधि चुनाव कराए जाएं. लेकिन चुनाव के बाद वो सरकार तब तक के लिए ही बनेगी, जितना कार्यकाल बचा होगा. ऐसी सरकार का कार्यकाल पांच साल नहीं होगा.

दूसरी दिक्कत यानी सरकार गिरने की स्थिति में लॉ कमीशन का सुझाव था कि अविश्वास प्रस्ताव के जरिए मौजूदा सरकार को तभी हटाया जाना चाहिए, जब दूसरी सरकार पर विश्वास हो. ताकि, समय से पहले लोकसभा या विधानसभा भंग न हो.

पर इससे होगा क्या?

एक-साथ चुनाव कराए जाने के पीछे सबसे बड़ा तर्क ये पैसों की बचत का दिया जाता है. कानूनन लोकसभा चुनाव का खर्च केंद्र और विधानसभा चुनाव का खर्च राज्य सरकार उठाती है. अगर किसी राज्य में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी हों तो फिर केंद्र और राज्य मिलकर खर्चा उठाते हैं.

लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 2014 के लोकसभा चुनाव के आसपास हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के खर्च की तुलना की थी. इसमें बताया था लोकसभा चुनाव के आसपास पांच राज्यों- हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, दिल्ली और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए थे. इन राज्यों में लोकसभा चुनाव के वक्त जितना खर्च हुआ था, लगभग उतना ही विधानसभा चुनाव में भी हुआ था.  

उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव के वक्त 487 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जबकि विधानसभा चुनाव में 462 करोड़ रुपये का खर्चा आया था. लॉ कमीशन का कहना था कि अगर साथ चुनाव होते तो इस खर्च को कम किया जा सकता था. 

कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने बीते महीने संसद में बताया था कि साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम और पेपर ट्रेल मशीनें खरीदनी होंगी, जिनपर करोड़ो रुपये खर्च होंगे. ईवीएम मशीन 15 साल तक चलती है. ऐसे में साथ चुनाव कराने पर इनका इस्तेमाल तीन या चार बार ही हो सकेगा. और उसके बाद फिर नई मशीनें खरीदनी होंगी.

हालांकि, लॉ कमीशन का कहना था कि अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते हैं तो 4,500 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा. ये खर्चा ईवीएम की खरीद पर होगा. लेकिन 2024 में साथ चुनाव कराने पर 1,751 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा. यानी, धीरे-धीरे ये एक्स्ट्रा खर्च भी कम हो जाएगा. 

क्या ये मुमकिन है?

इसकी राह में कई रोड़े हैं. सबसे बड़ा रोड़ा तो राजनीतिक पार्टियां हैं. कई सारी विपक्षी पार्टियां इसके विरोध में हैं. विरोध के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं. मसलन, साथ चुनाव होते हैं तो क्षेत्रीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों को तरजीह मिल सकती है या इसका उल्टा हो सकता है. इससे राष्ट्रीय पार्टियां बढ़ेंगी और क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो जाएंगी. दूसरी बड़ी दिक्कत संवैधानिक प्रक्रिया है. अगर सरकार इसका बिल ले आती है और ये दोनों सदनों से पास भी हो जाता है तो उसके बाद भी इसे कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं से अनुमोदित करवाना होगा.

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