राजनीतिक दलों में टिकट के बंटवारे का सबसे बड़ा आधार टिकटार्थी की जाति ही रहती है. सभी योग्यताएं उसके बाद देखी जाती हैं. यानी कि पहली शर्त जाति, समुदाय और धर्म का रहता है. मुस्लिमों के टिकट देते हुए कभी शेख-सैयद या पठान या पसमांदा होने का तर्क नहीं दिया जाता रहा है. निश्चित है कि अब मंडलवादी दल भी टिकट देते हुए उन जातियों को महत्ता देंगे जिनकी आबादी उस क्षेत्र में सबसे ज्यादा होगी.
जातिगत सर्वे के आंकड़ें कहते हैं कि बिहार की कुल आबादी 13 करोड़ है. इसमें 81.99 प्रतिशत हिंदू और 17.70 फीसदी मुसलमान हैं. सर्वे में मुस्लिम आबादी को 3 वर्गों में बांटा गया है. मुस्लिम कम्युनिटी के सबसे उच्च तबके जिसमें शेख-सैयद और पठान आते हैं उनकी संख्या 4.80 परसेंट है जबकि बैकवर्ड मुसलमान 2.03 परसेंट के करीब हैं. पर मुस्लिम आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा अति पिछड़े मुसलमानों का है. कुल मुसलमानों में करीब 10.58 प्रतिशत अति पिछड़े मुसलमान हैं. आइये, पहले मुसलमानों के जातिवार आंकड़ों पर नजर डालते हैं-
लालू- नीतीश कुमार और पसमांदा राजनीति
अभी तक सभी राजनीतिक पार्टियों में मुस्लिम्स वोटरों को ध्यान में रखकर किसी भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट देने की परंपरा रही है. पर निश्चित है कि अति पिछड़ों को ध्यान में रखकर जो पार्टी टिकट बांटेंगी वो फायदे में रहेगी. इसमें सबसे बड़ा नुकसान आरजेडी जैसी पार्टियों को ही होने वाला है. बिहार में फिलहाल पसमांदा मुस्लिम को सबसे पहले जोड़ने की पहल नीतीश कुमार ने की थी. अली अनवर सहित 2 लोगों को राज्यसभा में भेजकर नीतीश कुमार पसमांदा की पहली पसंद बने हुए हैं. जातिगत सर्वे में अति-पिछड़े मुसलमानों की गिनती करके नीतीश अब पसमांदा के हीरो बन चुके हैं. पर बिहार में मुसलमानों को सबसे भरोसेमंद नेता के रूप में आज भी लालू यादव पसंद हैं. भागलपुर दंगों में पहुंचकर या आडवाणी की रथयात्रा रोककर लालू ने मुसलमानों में ऐसा सुरक्षा का अहसास कराया है जिसके चलते मुसलमान उन्हें अपना हीरो मानते रहे हैं. पर पसमांदा राजनीति उनकी कमजोर रही है.लालू के साथ शुरू से ही जो मुस्लिम नेता उनकी आंख के बाल रहे हैं उनमें अधिकतर शेख ,पठान आदि हैं. तसलीमुद्दीन, शहाबुद्दीन या अब्दुल बारी सिद्दीकी आदि सभी उच्च जातियों के मुस्लिम उनके सबके करीब रहे हैं. हालांकि बिहार की गठबंधन सरकार में पसमांदा जनप्रतिनिधियों को मंत्री बनाकर उन्हें महत्व दिया गया है. जिसके चलते उम्मीद की जा रही है कि मुसलमान आरजेडी और जेडीयू के साथ ही रहने वाले हैं. बिहार की मुस्लिम राजनीति में पिछले कुछ चुनावों से असदद्दीन ओवैसी की पार्टी ने भी खलबली मचाई है. वे भी मुसलमानों के वोट जातियों में बिखरने से परेशान होंगे.
बीजेपी के साथ पसमांदा हो सकते हैं पर अभी विश्वास का संकट
राजनीतिक दलों के बीच सबसे बड़ी लड़ाई इन पिछड़े और अति पिछड़े मुसलमानों को लेकर ही रही है.जिस तरह हिंदुओं में अति पिछड़े विश्वकर्मा जातियां हैं जो किसी न किसी प्रकार किसी पेशे से जुड़ी हुई हैं, उसी तरीके से मुसलमानों में भी ये कारीगर जातियां ही सबसे पिछड़ी हुई हैं. 2014 के बाद से ये अति पिछड़ी जातियां बीजेपी को वोट दे रही हैं. चूंकि इन कारीगर जातियों का मिजाज हिंदुओं और मुसलमानों में एक ही जैसा होता है इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि इनके वोट का कुछ हिस्सा बीजेपी को भी जाए. हो सकता है विश्वकर्मा योजना का लाभ मिलने पर ये मुस्लिम अति पिछड़ी जातियां अपने परंपरागत वोटर पैटर्न से अलग हटकर वोट करें.
पर बीजेपी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत विश्वास के संकट का है. देश में जब भी कोई दंगा होता है सबसे अधिक नुकसान मुसलमानों में इन जातियों का ही होता है. हरियाणा में मेवात के दंगों के बाद गुड़गांव की कई कॉलोनियों में अघोषित रूप से तो कई खापों ने घोषित रूप से मुस्लिम फेरी वालों पर रोक लगा दी थी. आए दिन वेस्ट यूपी और हरियाणा में कभी सावन के नाम पर कभी नवरात्रों के नाम पर मीट की दुकानें बंद करा दी जाती हैं. इसमें सबसे अधिक नुकसान इसी पसमांदा समुदाय का होता है. यही कारण है कि बीजेपी ने यूपी निकाय चुनावों और एमसीडी चुनावों में पसमांदा को टिकट तो खूब बांटा पर अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी. यूपी स्थानीय निकाय चुनावों में करीब 300 टिकट बांटें गए जिसमें पसमांदा मुसलमानों के मुकाबले में अशरफ मुसलमानों के जीतने का परसेंटेज बेहतर रहा.बिहार में बीजेपी के पास कोई ढंग का पसमांदा लीडर भी नहीं है. साबिर अली को भी पसमांदा मुसलमान इलिट लीडर के रूप में ही देखते हैं.