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अपनी पत्नी बिमला को याद कर भावुक हुए शिवानंद तिवारी, सोशल मीडिया पर लिखा पोस्ट..

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DESK- पूर्व सांसद और समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी की पत्नी बिमला के निधन के एक साल पूरे हो गए हैं . अपनी पत्नी को याद करते हुए शिवानंद तिवारी ने आज एक भावुक पोस्ट सोशल मीडिया पर लिखा है. और अपनी पत्नी के साथ खट्टी मीठी अनुभवों को बेबाक अंदाज में  शेयर किया है. काफी संख्या में लोग स्वर्गीय बिमला देवी को श्रद्धांजलि देते हुए इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं. शिवानंद तिवारी ने आज के पोस्ट में क्या लिखा है. आप यहां पढ़ सकते हैं--

बिमला जी को गये एक साल हो गया. अंठावन वर्ष हमलोगों ने साथ गुज़ारा. जीवन का लगभग तीन चौथाई हिस्सा. 

अतीत में झांकने पर लगता है कि वह एक दूसरा ही युग था. पिता जी के दबाव में मैं शादी के लिए राज़ी हुआ था. वह एक अलग कहानी है. दरअसल बहुत कम उम्र में शहर के दादा के रूप में मैं 'प्रतिष्ठित' हो गया था. पटना के अलावा राँची और आरा से भी मेरी गिरफ़्तारी का वारंट जारी हो चुका था. यहाँ वहाँ मेरी गिरफ़्तारी के लिए पुलिस छापामारी कर रही थी. उसी बीच में बाबूजी ने शादी तय कर दी. मुझको लगा कि इस हालत में शादी करना , जबकि मेरी ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं है, अपराध होगा. 

बिमला जी का परिवार बाबूजी के विधानसभा क्षेत्र का ही था. वह परिवार बाबूजी का समर्थक था. लड़की भी उन्होंने देख ली थी. हर हाल में मेरी शादी हो जाए इसके लिए वे बेचैन थे. अंततोगत्वा मेरा छेंका हो गया. संयोग ऐसा हुआ कि छेंका के बाद मुझे जेल जाना पड़ा. पुलिस ने मुझे बांकीपुर जेल पहुँचा दिया. बाद में मुझे पता चला कि मेरे हर वारंट पर लाल स्याही से 'डेंजरस' लिखा हुआ है. पटना के अलावा राँची और आरा से भी मेरे ख़िलाफ़ वारंट था. जेल के बीस नम्बर सेल में मुझे अकेला रखा गया. बाद में जेल प्रशासन पर दबाव डाल कर मैंने आनंद लाल और बच्चू गोप को अपने ही सेल में बुलवा लिया. लगभग एक महीना मुझे बांकीपुर रहना पड़ा था. 

जेल का वह एक महीना कैसे बीता, उसकी भी मनोरंजक कहानी है. लेकिन वह फिर कभी. जेल से  मैंने अपने ससुराल में चिट्ठी लिखी. उसका लब्बोलुआब यह था कि मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं है. कोई मुझे मार दे सकता है या मेरे ही हाथ से किसी की हत्या हो जाए और मैं फाँसी लटका दिया जाऊँ. इसलिए बाबूजी का मुँह देख कर शादी मत कीजिए. 

लेकिन मेरी चिट्ठी का उलटा ही प्रभाव पड़ा. लड़का कितना साफ़ बोलता है. यह मुहर लग गई. उसके बाद शादी हो गई. शादी के पहले बिमला जी की सूरत देखना तो दूर, उनकी कोई तस्वीर भी मैंने नहीं देखी थी. शोहरत थी कि बहुत सुंदर हैं. शादी के बाद हमलोगों का गवना हुआ. उसके बाद ही बिमला जी का दीदार हुआ.

बिमला पढ़ी लिखी नहीं थीं. उस ज़माने में गाँव देहात में ब्राह्मण परिवार के लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था. जबकि प्राइमरी स्कूल घर के दरवाज़े पर ही था. उसी से लगा हुआ हाई स्कूल भी था. बिमला जी प्राइमरी स्कूल तक ही गईं थीं. 

बिमला कितनी पढ़ी लिखी हैं यह पूछने पर उनकी दादी बताती थीं कि 'बूचिया रामायण बाँच ले ले'. बिमला जी पढ़ी लिखी नहीं थीं. हमलोगों की कहानी इतनी लंबी है कि अलग से उसकी एक किताब बन जाए. लेकिन यहाँ बिमला जी से जुड़ी दो ऐसी घटनाओं का मैं ज़िक्र करना चाहता हूँ जो बहुतों को अविश्वसनीय लगेंगी. पहली और दूसरी हमारी दो बेटियाँ थीं. बेटी के जनम ते ही माँ बाप उनकी शादी की चिंता करने लगते थे. लेकिन हमलोग समग्र बदलाव के कार्यकर्ता थे. भरोसा था कि समाज बदलेगा और ज़रूर बदलेगा. बिमला जी को मैंने आश्वस्त किया जबतक हमारी बेटियाँ शादी व्याह के उम्र तक पहुँचेंगीं तब तक तिलक दहेज की परंपरा समाप्त हो जाएगी. शुरुआती दिनों से ही मेरे मन में था कि बेटियों की शादी अंतरजातीय किया जाए. बिमला जी से मैंने इसकी चरचा की. एक दलित परिवार का और दूसरा पिछड़ी जाति का लड़का था. बजाप्ता हमलोगों के बीच इस विषय पर चरचा हुई. एक बार भी उन्होंने इसका विरोध नहीं किया.  लेकिन वह हो नहीं पाया. वे पढ़ी लिखी महिला नहीं थीं. लेकिन इसके बावजूद ग़ज़ब की आधुनिकता थी उनमें.

एक दूसरे प्रकरण की भी मैं यहाँ चरचा करना चाहता हूँ. आज के माहौल में बहुतों को यह घटना अविश्वसनीय लगेगी. उन दिनों हमलोग श्रीकृष्णपुरी में रहते थे. हमारा घर छोटा मोटा कम्यून था. जिनका कोई ठिकाना नहीं रहता था वे निःसंकोच चले आते थे . जाति-धर्म का कोई भेद नहीं था. एक बार की बात है कि मेरी माई से बिमला जी का कुछ झंझट हुआ था. आंदोलन का समय था. मैं उन दिनों जेल में था. बिमला बहुत स्वाभिमानी महिला थीं. ग़ुस्सा में मायके जाने के लिए घर से निकल गईं. तब तक बुख़ारी यानी डाक्टर अस्मतुलाह बुख़ारी आ गया. हंसी मज़ाक़ में हमलोगों के बीच साला बहनोई का रिश्ता था. वह भी श्रीकृष्ण पुरी में ही रहता था. उसकी पत्नी आयशा जी उस समय पटना वीमेंस कॉलेज में हिंदी पढ़ाती थीं. उसने वहाँ जो कुछ देखा तो तुरंत बिमला जी को अपने घर चलने के लिए कहा. बिमला दो तीन दिन डाक्टर के घर रहीं. वहाँ सबके साथ इतना अपनापा हो गया कि हमलोग उसके गाँव बड़ी बलिया, बेगूसराय चले गये. दो दिन वहाँ रहे. वहाँ बिमला जी की जो ख़ातिरदारी हुई कि बस पूछिए मत ! आज जो माहौल है उसमें बहुतों को यह घटना अविश्वसनीय लगेगी. लेकिन गाँव देहात के ब्राह्मण परिवार से आनेवाली निपढ़ बिमला जी की अंदुरूनी बनावट ऐसी थी जिसमें जात पात और धर्म का भेद भाव नहीं था.

सोचा था कि कभी अपनी कहानी लिखूँगा. लेकिन बिमला जी के बग़ैर तो मेरी कहानी अधूरी है. 

उनको गये एक वर्ष हो गए. जब बीमार थीं तो मुझसे कहा था कि मेरे बग़ैर आप कैसे रहिएगा ! लेकिन रह ही रहा हूँ उनके बग़ैर. अगर बिमला मेरे जीवन में नहीं आई होतीं तो पता नहीं मेरा क्या होता. 

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