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लालू के साले साधु यादव को नहीं मिली राहत, 3 साल की सजा बरकरार; क्या है पूरा मामला?

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आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के साले व पूर्व एमपी साधु यादव की मुश्किलें बढ़ गई हैं. एमपीएमएलए कोर्ट ने साधु यादव की उस अपील को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने अपनी 3 साल की सजा को रद्द करने की मांग की थी. संसद-विधायकों के मामलों की सुनवाई के लिए गठित विशेष अदालत ने मंगलवार को आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के साले व पूर्व सांसद अनिरुद्ध प्रसाद यादव उर्फ साधु यादव को हुई तीन वर्ष कैद की सजा को बऱकरार रखते हुए उनकी अपील खारिज कर दी. 

बता दें कि वर्ष 2022 में विशेष अदालत के न्यायिक दंडाधिकारी आदि देव ने एक आपराधिक मामले में दोषी पाते हुए साधु यादव को 3 वर्ष की सजा सुनाई थी. कोर्ट ने सजा के फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए साधु यादव को औपबंधिक जमानत पर रिहा कर दिया था.

इधर, साधु यादव ने सजा के फैसले को चुनौती देते हुए अपील दायर की थी. इसे सुनवाई के बाद खारिज कर दिया गया. पूर्व सांसद साधु यादव को जिस मामले में सजा मिली है वो 22 साल पुराना है, तब वे गोपालगंज से विधायक थे. मामला वर्ष 2001 का है. जब साधु यादव ने परिवहन विभाग में घुसकर तत्कालीन परिवहन आयुक्त एनके सिन्हा से जबरदस्ती एक ट्रांसफर करवाया था. इस मामले में गर्दनीबाग थाने में केस दर्ज हुआ था. 

गौरतलब है कि बिहार की सियासत में अनिरुद्ध प्रसाद यादव उर्फ साधु यादव की तूती बोलती थी. लालू यादव और राबड़ी देवी के 15 साल के राज में साधु यादव का ऐसा सियासी रुआब था कि बिहार के अफसर से लेकर नेता तक कांपते थे. साधु यादव पर उनकी दीदी राबड़ी देवी और जीजा लालू यादव के साया के चलते बिना उनकी मर्जी के बिहार में एक पत्ता भी नहीं हिलता था. 

हालांकि, बिहार की सियासत ने ऐसी करवट ली कि सत्ता से आरजेडी के बेदखल होते ही लालू-राबड़ी ने साधु यादव से अपना पीछा छुड़ा लिया. इसके बाद से साधु यादव बिहार में राजनीतिक गुमनामी में हैं. वो कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक ठिकाने तलाशते रहे, लेकिन अपना पुराना रुतबा वापस नहीं पा सके.

साधु यादव आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के सबसे चर्चित साले रहे हैं. इनके ऊपर कई आपराधिक मामले कोर्ट में लंबित हैं. साधु गोपालगंज से सांसद और विधायक भी रह चुके हैं. इसके पूर्व साधु यादव ने बीते 2015 में बरौली विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था और उनकी जमानत तक जब्त हो गई थी. साल 2020 में साधु यादव ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन जब उन्हें कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिला तो बसपा के टिकट से साधु यादव ने चुनाव लड़ने का फैसला किया था.

साल 2009 में साधु यादव का उनकी बहन और बहनोई के साथ रिश्ता पूरी तरह से खटास में बदल गया. गोपालगंज की सीट को लेकर साले और बहनोई में ऐसी ठनी कि दोनों की राहें अलग हो गईं. उस वक्त वो सीट लोक जनशक्ति की पार्टी को लालू प्रसाद यादव ने दे दी थी. इसी से नाराज होकर साले साहब बहनोई से ऐसे नाराज हुए कि दोनों की राहें अलग हो गईं. एक-दूसरे से ऐसे जुदा हुए कि आजतक दोनों जुड़ नहीं पाए. 

भांजे ने भी मामा से किनारा किया 


साधु यादव ने जिस भांजे को गोद में खिलाया, उसी भांजे ने अपने साधु मामा को कंस मामा तक कह डाला था. लालू के बेटे तेज प्रताप यादव ने अपने मामा को कंस मामा कहकर बुलाया था. कभी बिहार में मामा-भांजे के रिश्ते की दाद दी जाती थी, लेकिन समय ने ऐसा चक्र चलाया कि जब साधु यादव ने अपनी बेटी की शादी की तो भी लालू परिवार से कोई भी शख्स शादी में शरीक नहीं हुआ. ऐसे में लालू ने साधु को ठुकराया है तब से साधु यादव राजनीति में अपनी जगह नहीं बना पाए. वो लगातार अपनी जमीन तलाशने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अभी तक सफल नहीं हो सके हैं. 

सियासत में नहीं बना पाए जगह

बिहार की सियासत में साधु यादव जिस दीदी-जीजाजी के बल पर दबंगई दिखाया करते थे. एक वक्त ऐसा आया जब अपनी बहन के खिलाफ ही चुनावी अखाड़े में उतर गए थे. आरजेडी से मतभेद होने के बाद साधु यादव ने कांग्रेस के हाथ का सहारा लिया था. कांग्रेस से भी नहीं जीत सके तो 2015 में बसपा के हाथी की सवारी भी की, लेकिन कोई काम नहीं आया. आरजेडी से नाराजगी का ऐसा हश्र हुआ कि साधु यादव राजनीति में आजतक संभल नहीं पाए. बिहार की जनता ने साधु यादव को किसी भी पार्टी से चुनाव लड़ने पर स्वीकार नहीं किया.

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