बिहार में ‘ठाकुर का कुआं’ कविता पर नया संग्राम छिड़ गया है, यह कविता राज्यसभा सदस्य और आरजेडी नेता मनोज झा ने महिला आरक्षण बिल पर चर्चा के दौरान पढ़ी थी. इस कविता को लेकर बिहार में ठाकुर Vs ब्राह्मण की जंग तेज होती जा रही है. हालात ऐसे हैं कि बीजेपी के ठाकुर विधायक नीरज कुमार बब्लू ने तो यहां तक कह दिया है कि मनोज झा ने सामने ये कविता सुनाई होती तो मुंह तोड़ देता. वहीं पूर्व सांसद आनंद मोहन ने यह तक कह दिया कि मैं होता तो मनोज झा की जुबान खींच लेता.
बिहार से लेकर दिल्ली तक जिस ठाकुर का कुआं कविता पर बवाल मचा है, उस कविता को ओम प्रकाश वाल्मीकि ने नवंबर 1981 में लिखा था. यह कविता लोगों के सामने सबसे पहले 1989 में तब आई थी जब ओम प्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह ‘सदियों का संताप’ प्रकाशित हुआ था. 2006 में प्रकाशित दलित निर्वाचित कविताओं के पेज नंबर 56 पर भी इस कविता को जगह दी गई थी. यह रचना उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है. जो गाहे-बगाहे चर्चा में रहती है.
कौन थे ओम प्रकाश वाल्मीकि?
ठाकुर का कुआं कविता लिखने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि का जन्म 3 जून 1950 को यूपी के मुजफ्फरनगर के गांव बरला में एक दलित किसान परिवार में हुआ था. उनका शुरुआती जीवन आर्थिक और सामाजिक संकटों में बीता. अपनी आत्मकथा जूठन में उन्होंने ऐसे कई तथ्यों को उभारा है, एम.ए. तक की शिक्षा लेने के बाद वह कुछ समय महाराष्ट्र में रहे यहां डॉ. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं से प्रभावित होकर उन्होंने लेखक कार्य शुरू किया. बाद में देहरादून स्थित ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में नौकरी लगने के बाद वे वापस आ गए और यहीं से रिटायर हुए. इस बीच वे लगातार दलित साहित्य का लेखन करते रहे. ओम प्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविताओ के जरिए लगातार दलितों और जातीय अपमान, उत्पीड़न की पीड़ा को उठाया. 17 नवंबर 2013 को देहरादून में ही उनका कैंसर से निधन हो गया था.
जीवन भर जातिवाद के दंश पर प्रहार करते रहे वाल्मीकि
ओम प्रकाश बाल्मीकि जीवन भर अपनी रचनाओं से जातिवाद के दंश पर प्रहार करते रहे. उन्होंने 1970 में ही लेखन कार्य शुरू कर दिया था, लेकिन नवंबर 1981 में लिखी गई कविता ठाकुर का कुआं उनकी वो रचना थी, जिससे उन्हें एक रचनाकार के तौर पर पहचान मिली. इसके बाद पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं को स्थान दिया जाने लगा. जूता, पहाड़, अस्थि विसर्जन जैसी उनकी कविताएं बहुत प्रसिद्ध रहीं, खास बात ये है कि कविताओं के साथ-साथ उन्होंने गद्य में भी काम किया. इसकी शुरुआत उन्होंने 1997 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा जूठन से की थी. वाल्मीकि ने अपनी इस रचना से जातिवाद के दंश को बयां किया था. उन्होंने जाति के दंश की क्रूर व्यवस्था और उसके दुष्परिणामों के बारे में भी बताया.
नाटकों में अभिनय का था शौक
भारत सरकार की राजभाषा वेबसाइट के मुताबिक ओम प्रकाश वाल्मीकि को दलित साहित्य लेखन के साथ अभिनय का भी शौक था. वे एक मंझे हुए निर्देशक भी थे. वेबसाइट के मुताबिक ओम प्रकाश वाल्मीकि ने 60 से अधिक नाटकों में अभिनय और निर्देशन किया है. उनकी पत्नी भी इन नाटकों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करती थीं.
प्रेमचंद्र के दलित लेखन का प्रभाव
ओम प्रकाश वाल्मीकि पर प्रेमचंद्र के दलित लेखन का गहरा प्रभाव था. राजभाषा वेबसाइट के मुताबिक वह इस बात पर जोर देते थे कि प्रेमचंद्र का अध्ययन करना दलित ही नहीं बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए जरूरी है जो साहित्य को जरूरी मानता है. अपनी रचनाओं के बारे में ओम प्रकाश वाल्मीकि कहते थे कि मेरी रचनाओं में हजारों साल की घुटन, अंधेरे में गूंजती चीत्कारें और भीषण यातनाताओं से मुक्ति होने का प्रयास ही नजर आता है.
ये हैं प्रमुख रचनाएं और पुरस्कार
ओम प्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह 1989 में ‘सदियों का संताप’ प्रकाशित हुआ था. इसके बाद 1997 में ‘बस बहुत हो चुका’ और सन् 2009 में ‘अब और नहीं’ कविता संग्रह प्रकाशित हुए. इसके अलावा 1997 में उनकी आत्मकथा जूठन, सन् 2000 में प्रकाशित कहानी संग्रह सलाम और 2004 में प्रकाशित घुसपैठिए उनकी प्रमुख रचनाएं हैं, 2001 में उनकी दलित साहित्य का सौदर्य शास्त्र और 2009 में वाल्मीकि समाज के इतिहास की जानकारी देने वाली पुस्तक सफाई देवता पुस्तक भी प्रकाशित हुई थी. दलित साहित्य के क्षेत्र में लगातार काम करने के लिए ओम प्रकाश वाल्मीकि को 1993 में डॉ. अंबेडकर सम्मान, 1995 में परिवेश सम्मान, 2001 में कथाक्रम सम्मान, 2004 में न्यू इंडिया बुक पुरस्कार और 2009 में साहित्य भूषण पुरस्कार से भी नवाजा गया था.
कविता जिस पर छिड़ा विवाद
चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का.
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की, बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का.
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का,
हल की मूठ पर हथेली अपनी, फसल ठाकुर की.
कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के,
गली-मोहल्ले ठाकुर के फिर अपना क्या?