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जानें कौन हैं...नालंदा के कमलेश कुमार ?, जिन्हें राष्ट्रपति करेंगी सम्मानित !

विश्व प्रसिद्ध बिहार का नालंदा ज़िला एक बार फ़िर से हस्तकरघा शिल्प और बुनकर परंपराओं की वजह से देश भर में गौरवांवित महसूस कर रही है। क्योंकि, सिलाव प्रखंड के नेपुरा गांव निवासी लखन राम के 40 वर्षीय पुत्र कमलेश कुमार ने बावनबूटी कला को...

Jaane kaun hain...Nalanda ke Kamlesh Kumar?, Jinhe Rashtrapa

Nalanda : विश्व प्रसिद्ध बिहार का नालंदा ज़िला एक बार फ़िर से हस्तकरघा शिल्प और बुनकर परंपराओं की वजह से देश भर में गौरवांवित महसूस कर रही है। क्योंकि, सिलाव प्रखंड के नेपुरा गांव निवासी लखन राम के 40 वर्षीय पुत्र कमलेश कुमार ने बावनबूटी कला को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाया है। जिसके लिए 7 अगस्त को बुनकर दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा सम्मानित किया जाएगा। राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले में कमलेश कुमार बिहार के पहले बुनकर हैं।


कमलेश की इस उपलब्धि के लिए पूरा गांव परिवार में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी है। उन्होंने कहा कि, यह हमारा परंपरागत कला है। जिसे हम तीन चार पीढ़ी पहले चली आ रही है। छोटी सी उम्र से ही देखकर सिखा और सभी परिवार मेहनत करते आ रहे हैं। आज यह सम्मान उसी मेहनत का नतीजा है। हमारे तीन संतान हैं। जिनमें दो पुत्र और एक पुत्री तीनों लोग पढ़ाई कर रहे हैं। इसी पेशे से परिवार का जीविकोपार्जन भी चलता है। बड़ा बेटा राजू कुमार कोलकाता के IIHT फुलिया से टेक्सटाइल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। हमारा परिवार सिल्क कपड़ों के कुशल बुनकर रह चुके हैं। वर्षों से साड़ी बुनाई हमारी पुरानी पहचान है।


कमलेश कुमार भारत सरकार द्वारा आयोजित विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शिल्प मेलों में प्रतिनिधित्व करने का अवसर पा चुके हैं। इनके द्वारा शिल्प किए गए कपड़ों की तारीफ़ देश विदेशों में भी हो चुकी है। यह पुरस्कार हम तमाम बुनकरों के लिए बड़ी उपलब्धि है। मैं काफ़ी ख़ुश हूं। इन बुनकरों की सबसे बड़ी परेशानी मार्केटिंग की है। जो इस उपलब्धि के बाद उम्मीद जगी है, फ़िर से पुराने की तरह मार्किट बनेगा। यहां से साड़ी, कुर्ता, शर्ट, और अंगवस्त्र इत्यादि तैयार कर पटना एवं दिल्ली बाज़ार में भेजते हैं। जिसमें विभिन्न प्रकार की साड़ियां होती है। नार्मल सारी बनाने में 5 दिन जबकि बढ़िया क्वालिटी में 10 दिन लग जाते हैं। एक सारी का ख़र्च 400 रूपए से 800 तक होता है। इसके साथ ही पूरे दिन की मेहनत रहती है। इससे हम बुनकरों को व्यवसाय में बढावा मिलने की उम्मीद है। विभाग के ज़रिए दूरभाष पर और यहां के अधिकारियों ने घर पर आकर जानकारी दिए हैं। पहले बिहार झारखंड जब एक राज्य था तो उस समय भी झारखंड से ही धागा खरीदकर लाते थे। अब भी वहीं से आते हैं। इसके अलावा ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी मिलता है। अब जंगलों की कटाई से मुश्किलें बढ़ गई है और महंगा होते जा रहा है। आपको बताते चलें कि इससे पहले बावनबूटी कला को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए ज़िला मुख्यालय बिहार शरीफ के बसावन बिगहा निवासी स्व. कपिलदेव प्रसाद को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। बावनबूटी कला का इतिहास बौद्ध काल से जुड़ा है। यहां तसर और कॉटन के कपड़ों को हाथ से तैयार किया जाता है फ़िर उसपर विभाग प्रकार की डिज़ाइन बनाकर उकेरा जाता है।


नालंदा से मो. महमूद आलम की रिपोर्ट


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